बच्चों की वैक्सीन

बच्चों के टीकाकरण को लेकर पिछले कुछ दिनों में कई तरह की खबरें आईं। कहा गया कि सितंबर माह से बच्चों को टीका लगना शुरू हो जाएगा। मगर स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया ने अगस्त माह से ही बच्चों को टीका लगाने की बात कही है। अगर यह सही है तो इसे उत्साहवद्र्धक तो माना जाना चाहिए। कोरोना की तीसरी लहर सिर पर है, विशेषज्ञ लाख कहें कि बच्चों को इससे फर्क नहीं पड़ेगा, पर बीमारी का जो स्वरूप है, उसने माता-पिता की चिंता बढ़ा रखी है। पूरी दुनिया यह मान चुकी है कि कोरोना से सिर्फ वैक्सीन ही बचा सकती है, दूसरे देशों में तो बच्चों को टीका लगना शुरू भी हो चुका है। सिर्फ भारत ही अब तक पीछे था। स्वास्थ्य मंत्री अब कह रहे हैं कि अगस्त माह में बच्चों का टीका मिल जाएगा तो इसे सकारात्मक ही लेना होगा। 


बच्चों के टीके को लेकर व्यापक स्तर पर सावधानी की जरूरत भी होगी। जाहिर है केंद्र सरकार इस पैमाने पर ध्यान दे रही होगी। कोरोना के दैनिक आंकड़े कम होने के बाद एक बार फिर बढऩे लगे हैं। खुद स्वास्थ्य मंत्रालय लोगों को चेतावनी दे रहा है। सरकार बराबर कह रही है कि पाबंदियां हटने का मतलब कोरोना खत्म नहीं माना जाए। पाबंदियां खत्म होने का यह मतलब बिल्कुल नहीं लगाना चाहिए कि अब कोई खतरा नहीं रह गया है। बल्कि तीसरी लहर कब दस्तक दे दे, कोई नहीं जानता। वैसे इसका अनुमान अगस्त से अक्टूबर के बीच का है। इसे देखते हुए खतरा अब ज्यादा बड़ा है। अगर लोगों की भीड़ अचानक बढऩे लगी तो फिर से कहीं नया जोखिम न खड़ा हो जाए। दरअसल आशंकाओं के पीछे कई कारण हैं। दुनिया के कई शहरों में देखा जा चुका है कि पाबंदियां हटाने के बाद लोग एकदम से निकल पड़े और फिर अगली लहर ने हमला बोल दिया। ब्रिटेन सबसे बड़ा उदाहरण है। कई महीनों के लॉकडाउन के बाद ब्रिटेन में लगने लगा था कि संक्रमण की लहर कमजोर पड़ चुकी है। इसलिए पाबंदियां पूरी तरह से हटा ली गई थीं।


 मेट्रो, बसें पहले की तरह ही शुरू कर दी गईं। इससे भीड़ बढ़ती गई। इसका नतीजा यह हुआ कि कोरोना का नया रूप सामने आ गया और तेजी से फैल गया। न सिर्फ ब्रिटेन में बल्कि वहां से दुनिया के कई देशों में पहुंच गया। ब्रिटेन के इस सबक को हमें भूलना नहीं चाहिए। भारत में चौथा सीरो सर्वे एक बात और बता रहा है। वह यह कि हमारे यहां अभी भी 40 करोड़ लोगों में प्रतिरोधी क्षमता विकसित नहीं हुई है। इन लोगों को संक्रमण का खतरा काफी ज्यादा है। 40 करोड़ की आबादी कम नहीं होती। फिर विषाणु के नए-नए रूप जिस तेजी से मिल रहे हैं, वह और बड़ा खतरा है। इसलिए इस वक्त सबसे बड़ी चुनौती कैसे भी करके लोगों को संक्रमण से बचाने की है। कामधंधों के मद्देनजर बेशक पाबंदियां हटाना जरूरी है। स्कूल खुलना भी जरूरी है। लोग महामारी की मानसिक पीड़ा भी भुगत चुके हैं। पर साथ ही जो बात सबसे ज्यादा चिंता पैदा करती है, वह लोगों के लापरवाह बर्ताव को लेकर है। बाहर निकलते समय मास्क नहीं लगाना गंभीर समस्या बनता जा रहा है। ऐसे में घरों में बैठे बच्चों को सबसे ज्यादा खतरा है। लोग दिनभर लापरवाही से बाहर घूमकर घरों में जाते हैं तो संक्रमण साथ ले जाते हैं। 18 साल से ऊपर के लोगों को तो वैक्सीन गंभीर संक्रमण से बचा लेगी, मगर जो बच्चे बिना वैक्सीन के घरों में हैं, उन पर संकट तो बढ़ेगा ही। कहने को पुलिस मास्क नहीं पहनने वालों पर जुमार्ना भी लगाती है। फिर भी लोग बेपरवाह हैं। 


जहां तक टीकाकरण का सवाल है तो भारत की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। टीकाकरण का आंकड़ा भले चवालीस करोड़ पहुंच रहा हो, लेकिन हकीकत यह है कि देश में दस फीसद वयस्कों को भी टीके की दोनों खुराकें नहीं लगी हैं। एक खुराक लेने वाले वयस्कों का आंकड़ा अभी भी कुल आबादी का सिर्फ एक तिहाई ही है। ज्यादातर राज्यों में टीकाकरण सुस्त पड़ा है। राजधानी दिल्ली में ही इन दिनों कोविशील्ड टीके की पहली खुराक देने का काम बंद है। ऐसे में रास्ता एक ही है और वह यह कि हम खुद ही अपना बचाव करें। बेवजह बाहर न निकलें और कोविड व्यवहार के नियमों का सख्ती से पालन करने की आदत डाल लें। यही संक्रमण की लहरों से बचाएगा। बच्चों का मामला ज्यादा ही संवेदनशील है। दो से छह साल तक के बच्चे तो अपनी तकलीफ बयां भी नहीं कर पाते। परीक्षणों और इलाज की जटिल प्रक्रियाओं के दौर से गुजरना बच्चों के लिए कितना पीड़ादायक होता होगा, यह कल्पना से परे है। बच्चों पर महामारी का खतरा इसलिए भी बना हुआ है कि अगर घर में किसी एक या उससे ज्यादा सदस्य संक्रमण से ग्रस्त हो जाएं तो बच्चों को इसकी जद में आते देर नहीं लगती। दूसरी लहर में ऐसे मामले देखे भी गए। जाहिर है, अगर बच्चों को टीका लगा होगा तो काफी हद तक बचाव रहेगा। लेकिन यहां पर भी एक मुश्किल यह है कि भारत अभी टीकों की कमी से जूझ रहा है। कंपनियां एकदम से मांग पूरी कर पाने की स्थिति में हैं नहीं। फिर जैसे बड़ों के लिए प्राथमिकता समूह तय किए गए, उस तरह बच्चों में तो कोई समूह नहीं बनाया जा सकता। बारह से अठारह साल के किशोरों की संख्या चौदह से पंद्रह करोड़ के बीच बैठती है। यानी बच्चों के लिए अलग से तीस करोड़ टीके और चाहिए। इसलिए दो से अठारह साल के बच्चों के लिए पर्याप्त टीकों का उत्पादन जरूरी है। वरना टीके के लिए लोग आज जैसे धक्के खा रहे हैं, तब लोग अपने बच्चों को लेकर परेशान होते दिखेंगे।


-सिद्वार्थ शंकर-