पर्दा जो उठ गया तो भेद खुल जाएगा

भारतीय राजनीति जो कभी आदर्शों व सिद्धांतों पर आधारित राजनीति समझी जाती थी, ऐसा लगता है धीरे धीरे अपने निम्नतम स्तर पर पहुँच चुकी है। इसकी मुख्य वजह यही है कि अब राजनीति में सिद्धांतवादी, स्वाभिमानी, ईमानदार, चरित्रवान, सत्यवादी तथा राष्ट्रभक्ति का जज़्बा रखने वाले नेताओं की काफ़ी कमी हो गयी है। यही वजह है कि हमारे रहनुमाओं द्वारा सच्चाई को छुपाने के लिए अब 'झूठ का पर्दा' डालने की रीति शुरू की जा चुकी है। याद कीजिए 3 से लेकर 14 अक्टूबर 2010 के बीच राजधानी दिल्ली में आयोजित किया गया बहुचर्चित १९वां राष्ट्रमंडल खेल। उस दौर में जिन रास्तों से अंतर्राष्ट्रीय अतिथियों व खिलाड़ियों को गुज़रना था उन रास्तों के किनारों पर 6-8 और कहीं कहीं 10 फ़ुट ऊँचे रंग बिरंगे होर्डिंग्स व फ़्लेक्स आदि लगाकर सड़क के पीछे के उन दृश्यों को छुपाने का काम किया गया था जो राष्ट्रमंडल खेल के मेज़बान, दिल्ली की सुंदरता में एक धब्बा साबित हो सकते थे। सरकार ने उन बदनुमा धब्बों को मिटने के बजाए उन्हें छुपाना ज़्यादा बेहतर समझा। परन्तु जब मीडिया अपने कर्तव्यों का निर्वाहन करते हुए उन होर्डिंग्स व फ़्लेक्स के पीछे भी झांक कर उन छिपे हुए दृश्यों की हक़ीक़त भी बयान करने लगे फिर आख़िर इस फ़ुज़ूल के अभ्यास से क्या हासिल ? सिवाय इसके कि सरकार 'पर्दा दारी' के इस अनावश्यक खेल में भी जनता के पैसों को फूंकने का ही प्रयास करती है ? बल्कि जब मीडिया सरकार द्वारा 'गोबर पर चांदी का वर्क़ ' लगाने जैसे इस तरह के प्रयासों के पोल खोलती है तो सरकार की और भी अधिक फ़ज़ीहत होती है? ऐसे ही दृश्य देश ने गुजरात में भी उस समय देखे थे जब 24 फ़रवरी 2020 को तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति 'नमस्ते ट्रंप ' कार्यक्रम में हिस्सा लेने अहमदाबाद पधारे थे। उस समय राष्ट्रपति ट्रंप को हवाई अड्डे से निकलकर जिन 'रोड शो' वाले निर्धारित रास्तों से गुज़ारना था उन रास्तों में कई जगह ग़रीबों की झुग्गी बस्तियां आबाद थीं। हमारे 'यशस्वी प्रधानमंत्री ' नहीं चाहते थे कि उनके 'मित्र' ट्रंप की नज़र उन ग़रीबों की बस्तियों व उनके परिवार के लोगों व उनके रहन सहन पर पड़े और उनका 'यश' 'अपयश' में बदल जाए । नेताओं को तो फ़क़त ग़रीबों के वोट की दरकार होती है। न कि उनके रहन सहन की शैली में सुधार करने की न ही उनका जीवन स्तर ऊपर उठाने की। इसीलिए उस समय लगभग 5000 की आबादी वाली उन ग़रीबों की झुग्गीनुमा बस्तियों को ट्रंप की नज़रों से छुपाने के लिए युद्ध स्तर पर दिन रात काम कराकर लगभग 600 मीटर लंबी ईंटों की पक्की दीवार तैयार कराई गयी। दीवार का भीतरी भाग तो कोरा रखा गया जबकि सड़क की ओर के भाग में प्लास्टर कर उसपर भारत अमेरिका मैत्री तथा मोदी-ट्रंप के रंग बिरंगे चित्र व स्वागत संबंधी अनेक नारे व चित्रों की आकर्षक पेंटिंग बनाई गयी। बेशक राष्ट्रपति ट्रंप की नज़रों से ग़रीबों की झुग्गियां तो उस समय ज़रूर छुप गयीं। परन्तु कई अमेरिकी पत्रकारों की नज़रों से भारत व गुजरात सरकार की लीपापोती की यह कार्रवाई नहीं छुप सकी। देशी-विदेशी पत्रकारों के कैमरों ने दीवार के पीछे झांकना शुरू कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि अनेक भारतीय व विदेशी ख़ासकर अमेरिकी अख़बारों में दीवार के दोनों ओर के चित्र प्रकाशित हुए। कई ग़रीब झुग्गीवासियों के साक्षात्कार प्रकाशित व प्रसारित हुए जिसमें उन ग़रीबों ने अपने इस दर्द का इज़हार किया कि ग़रीबी और अमीरी के बीच यह दीवार खड़ी कर सरकार ने उन्हें उनके घरों के सामने से गुज़र रहे एक अति महत्वपूर्ण अतिथि का दर्शन नहीं करने दिया और उनका स्वागत करने का मौक़ा नहीं दिया। दुनिया के कई देशों के अख़बारों ने इस विषय को गंभीरता से उठाया व संपादकीय तक लिखे। परन्तु 'सच पर झूठ का पर्दा' डालने का यही सिलसिला अब एक ऐसे ख़तरनाक दौर में आ पहुंचा है जबकि सरकार द्वारा गन्दिगी, गड्ढे या ग़रीबों की बस्तियां नहीं बल्कि जलती हुई चिताओं को छुपाने की कोशिश की जा रही है। जो सरकारें कोरोना से लड़ने में सरकारी प्रयासों का झूठा गुणगान करते नहीं थक रही थीं। जिन्होंने कोरोना को 21 दिन में मात देने के दावे किये थे, सीधे साधे भोले भाले देशवासियों से कभी ताली-थाली बजवाकर तो कभी टॉर्च व दीये जलवाकर 'आपदा में अवसरवादिता ' का खेल खेला था। और तो और अरबों रूपये इसी कोरोना से संघर्ष के नाम पर वसूल किये थे। कोरोना की वर्तमान चिंताजनक स्थिति ने उन सभी ख़ुशफ़हमियों की पोल खोल कर रख दी है। सरकार के लिए नया संसद भवन बनवाना, प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति के लिए नए विशेष विमान ख़रीदना, सरदार पटेल की विश्व की सबसे ऊँची प्रतिमा बनवाना तो उसकी प्राथमिकता है परन्तु पिछले डेढ़ वर्ष के कोरोना काल से सरकार ने यह सबक़ नहीं लिया कि कम से कम देश के सभी शहरों, ज़िलों, व तहसीलों में कोरोना के लिए विशेष केंद्र स्थापित कर लेती? कोरोना संबंधी ज़रुरत सभी सामग्री जुटा लेती। यही वजह है कि आज बेक़ाबू हो रहे हालात में सरकार को न केवल कोरोना प्रभावित लोगों के आंकड़े छुपाने पड़ रहे हैं बल्कि कोरोना से मरने वालों के आंकड़ों को भी छुपाने की ज़रुरत महसूस होने लगी है। उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्यों से कई ऐसे समाचार आ रहे हैं जिनसे पता चलता है कि कोरोना के चलते होने वाली मौतों की संख्या सरकार द्वारा जारी आंकड़ों से कहीं अधिक है। मध्य प्रदेश में तो एक ऐसे अधिकारी को भी निलंबित कर दिया गया जो मीडिया के पूछने पर कोरोना से निपटने की सरकारी क़वायद का सही सही चित्रण कर रहा था। यानी झूठी लीपापोती करने के बजाय सही स्थिति से अवगत करा रहा था। इसी तरह पिछले दिनों लखनऊ के अति व्यस्त शमशान घाट, बैकुंठ धाम की चहारदीवारी को टीन की ऊँची दीवारें खड़ी कर सिर्फ़ इसलिए ढक दिया गया ताकि अनेकों चिताओं का एक साथ जलना लोगों विशेषकर मीडिया को दिखाई न दे। उत्तर प्रदेश में भी लखनऊ सहित अनेक शहरों में सरकार द्वारा कोरोना प्रभावित मृतकों के जो आंकड़े जारी किये जा रहे हैं वह मृतकों की संख्या से मेल नहीं खाते। इसीलिए लखनऊ में शमशान के पीछे की सही स्थिति को छुपाने के लिए टीन की चादरों की ऊँची चहारदीवारी बनाई गयी है। अफ़सोस है कि हमारे 'योग्य व यशस्वी' नेता सच बताने पर नहीं बल्कि छुपाने और सच पर पर्दा पोशी करने पर यक़ीन रखते हैं। सवाल यह है कि क्या पर्दा डालने मात्र से किसी ऐब या कमी को छुपाया जा सकता है ? इन शातिर राजनेताओं को ज़रूर सोचना चाहिए कि झूठ का 'पर्दा जो उठ गया तो भेद खुल जाएगा'।