'अन्नदाता' की ताक़त का आंकलन करने में विफल है सरकार

देश का 'अन्नदाता' गत नौ महीने से भी अधिक समय से आंदोलनरत है। आंदोलन का समाधान निकलने के बजाय धीरे धीरे इस किसान आंदोलन की तीव्रता और तल्ख़ी दोनों ही बढ़ती जा रही है। सरकार व सरकारी पक्षकारों,नेताओं व प्रशासन द्वारा अपनाया जाने वाला ग़ैर ज़िम्मेदाराना रवैय्या किसान आंदोलनकारी नेताओं व सरकार के मध्य बातचीत में आये  लंबे गतिरोध का कारण है। न जाने क्यों सरकार को यह ग़लतफ़हमी हो चुकी है कि चूँकि वह पूर्ण बहुमत की जनप्रतिनिधि सरकार है और विपक्ष अपने स्वार्थों के चलते विभाजित है इसलिये वह बेरोकटोक जब और जैसे चाहे क़ानून या अध्यादेश पारित करा सकती है। और संभवतः उसकी इसी ग़लतफ़हमी के चलते कोरोना काल के दौरान तीन नए कृषि अध्यादेश संसद में पारित कराये गये । इन अध्यादेशों के पारित होने से पहले ही उन उद्योगपतियों द्वारा देश में सैकड़ों विशाल गोदाम बनाये गये,विशेष रेलवे लाइनें बिछाकर उन गोदामों को रेलवे लाइनों से जोड़ा गया,इस सब कामों के लिये हर जगह राज्य सरकारों ने गुपचुप तरीक़े से उन्हें पूर्ण सहयोग दिया। सरकार सोच रही थी कि जिस तरह वह दूसरे अन्य वर्गों व आंदोलनों को धर्म-जाति का रंग देकर या उसपर अन्य तरह के गंभीर आरोप गढ़-मढ़ कर कुचल देती रही है उसी तरह किसानों के इन विरोध  स्वरों को भी कुचल देगी। परन्तु दरअसल सरकार के लिये यह कृषि क़ानून तो उसी समय अशुभ संकेत देने लगे थे जबकि इन के पास होते ही भाजपा के पुराने सहयोगी व केंद्र सरकार में शिरोमणि अकाली दल बादल की प्रतिनिधि मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इसी कृषि अध्यादेश के विरुद्ध त्याग पात्र दे दिया। इतना ही नहीं बल्कि पंजाब में अकाली दल ने भाजपा से अपना 24 वर्ष पुराना मज़बूत गठबंधन भी तोड़ लिया।


यह अकेली घटना ही इस नतीजे पर पहुँचने के लिये काफ़ी है कि मोदी सरकार विशेषकर स्वयं प्रधानमंत्री को एक तो अपने राज्य के उद्योगपति मित्रों के हितों की चिंता अपने पुराने राजनैतिक सहयोगियों से भी अधिक है। दूसरी बात यह कि जब सरकार अपने ही मंत्री को यह समझा पाने में विफल रही कि कृषि अध्यादेश किसानों के लिये हितकारी व उनकी आय में बढ़ोतरी करने वाले हैं वह आख़िर अरबों रूपये का विज्ञापन देकर या किसान को मार पीट कर या उनपर तरह तरह के लांछन लगा उन्हें अपमानित कर आख़िर उन्हें कृषि अध्यादेशों के फ़ायदे क्यों और कैसे समझा सकती है ? बजाय इसके यह ज़रूर देखा जा रहा है कि आंदोलन कुचलने के सभी सरकारी हथकंडे सरकार पर ही भारी पड़ते जा रहे हैं। और किसान आंदोलन आये दिन तीव्र और तल्ख़ होता जा रहा है। सरकार शायद इन आंदोलनकारी किसानों के तेवर व इनके समर्पण को सही ढंग से आंक नहीं पा रही है। यहां मझे यह लिखने में कोई संकोच नहीं कि यदि भाजपा -कांग्रेस सहित देश के सभी राजनैतिक दल मिलकर भी इतना बड़ा,अनुशासित व सुचारु आंदोलन चलाना चाहें तो भी न तो इतनी मानव शक्ति जूटा सकती हैं न इतना पैसा ख़र्च कर सकते हैं न ही इतनी तकलीफ़ सहन करने वाले समर्पित स्वयंसेवक ला सकते हैं। साफ़ है जो अन्नदाता पूरे देश को अन्न दे सकता है वह आंदोलन के दौरान स्वयं भूखा कैसे रह सकता है ,बल्कि वास्तव में किसान आंदोलन के सदक़े में जगह जगह हज़ारों भूखे आम लोगों को भी भोजन नसीब हो रहा है।


दूसरी बड़ी ग़लती सत्ता के पक्षकारों द्वारा आंदोलन को कुचलने के असफल प्रयासों द्वारा की जा रही है। कभी सरकार ज़मीन में कीलें ठोक कर किसानों को दिल्ली में न घुसने देने की कोशिश करती है तो कभी सड़कों में खाईयां खोद उनका रास्ता रोकने का प्रयास किया गया,कभी भाजपा विधायक द्वारा अपने चंद समर्थकों के साथ धरने पर बैठे किसानों पर हमला किया गया  तो कभी आंदोलनरत किसानों को पानी की आपूर्ति रोक दी गयी। कभी 2 अप्रैल 2021 को अलवर में राकेश टिकैत के क़ाफ़िले पर हमला कराया गया तो गत 28 अगस्त को करनाल में लाठी चार्ज कर कई किसान घायल कर दिये गये। जब किसान मोर्चा ने उत्तर प्रदेश में अपने जनसमर्थन के लिये आंदोलन के विस्तार की बात की तो भाजपा द्वारा एक कार्टून जारी किया गया जिसकी शब्दावली व चित्र किसानों को डराने व धमकी देने वाले थे। परन्तु इन जैसे सत्ता के सभी प्रयासों का प्रभाव उल्टा ही हुआ है। हमेशा इन 'सरकारी ' कोशिशों व दुष्प्रचार का फ़ायदा किसानों को ही मिला है। बहुमत की सत्ता भले ही इस आंदोलन को सिर्फ़ इसलिये तवज्जो न दे रही हो क्योंकि उसकी नज़रों में किसानों से ज़्यादा अहमियत चंद उद्योगपतियों की है परन्तु दरअसल यह सरकार व उसके सलाहकारों की भूल है। राकेश टिकैत ने सिर्फ़ एक बार इन्हीं अत्याचारों से दुखी होकर आंसू बहाये थे उसके बाद इस आंदोलन में गोया सैलाब आ गया था। क्योंकि यह 'अन्नदाता ' द्वारा अपनी ज़मीन व अपनी आत्म सम्मान की रक्षा की ग़रज़ से आम जनता विशेषकर किसानों के बीच बहाये गये एक किसान नेता के दिल से निकले आंसू थे जिन्होंने कोहराम मचा दिया। न कि संसद में आत्मरक्षा की गुहार लगाने या कैमरे के सामने छलकाये गये ढोंगपूर्ण घड़ियाली आंसू।


सरकार भले ही किसानों की हित चिंतक होने या उनकी आय दो गुनी करने का कितना ही दावा क्यों न करे परन्तु नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो एनसीआरबी के आंकड़ों अनुसार 2019 में भारत में 4324 किसानों द्वारा क़र्ज़ या भूखमरी के चलते आत्म हत्या की गयी । इनमें सबसे अधिक 1247 आत्महत्यायें महाराष्ट्र के किसानों या खेतिहर मज़दूरों द्वारा की गयीं। जबकि सबसे कम यानी 63 किसानों की आत्महत्यायें पंजाब में हुईं। पंजाब सरकार द्वारा गत दिनों भूमिविहीन मज़दूरों का 526 करोड़ क़र्ज़ भी माफ़ किया गया क्योंकि क़र्ज़ के बोझ से दबा प्रायः यही वर्ग आत्म हत्या करता है। परन्तु केंद्रीय स्तर पर तो उद्योगपतियों के हज़ारों व लाखों करोड़ रूपये तो ग़ैर निष्पादित संपत्ति अर्थात एनपीए के खाते में डाल दिये जाते हैं और उन्हें देश छोड़ने के लिये कथित रूप से 'सुरक्षित मार्ग' भी मुहैय्या कराया जाता है। जबकि  मामूली से पैसों के लिये एक ग़रीब किसान व मज़दूर के घरों की कुर्की हो जाती है,उसे जेल भेज दिया जाता है या उसके चित्र व नाम प्रकाशित कर उसे अपमानित किया जाता है।


सरकार को चाहिये कि वह अपनी छवि चमकाने,चुनावी जीत के गुणा भाग बिठाने,विज्ञापन आधारित लोकप्रियता अर्जित करने तथा केवल चंद उद्योगपतियों के हितों की चिंता करने के बजाये अन्नदाताओं की समस्याओं का यथाशीघ्र समाधान करे।इसके अलावा सरकार को किसानों पर लांछन लगाने जैसी रणनीति से व किसानों को कमज़ोर समझने की सलाह देने वाले सलाहकारों से भी बाज़ आना चाहिये। परन्तु चिंता का विषय है कि गत लगभग एक वर्ष से 'अन्नदाता ' की ताक़त का आंकलन करने में यह सरकार विफल रही है। 


-तनवीर जाफ़री-