क्या किसान आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ”वोट की चोट“ कर पायेंगे?

एक किसान परिवार से संबंध होने के नाते मैंने 70 के दशक से उत्तर भारत के किसान आन्दोलनों और किसान राजनीति को बहुत करीब से देखने और समझने की कोशिश की है। इस दौरान चौधरी चरण सिंह और चौधरी देवीलाल जैसे बड़े नेता होते थे जो किसान राजनीति करते थे। 80 के दशक में चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत बड़े किसान नेता थे। उनके नेतृत्व में वर्ष 1987 में दिल्ली के वोट क्लब पर किसानों व्दारा दिया गया धरना आज तक चर्चा में रहता है। तत्समयचौधरी चरण सिंह और चौधरी देवीलाल जैसे बड़े राजनेताओं के कारण संसद के अंदर और चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत जैसे किसान नेताओं के कारण संसद के बाहर किसान और किसानी हमेशा बड़ा मुद्दा होता था। उन दिनों खेती से जुड़ी जो भी किसान जातियां थी, उन जातियों के किसान अपनी जाति के रूप में नहीं अपितु किसान के नाम से अपनी पहचान बनाते थे।


90 के दशक से किसान राजनीति के हालात बदल गये। इस दौरान जैसे ही मण्डल और मंदिर की राजनीति परवान चढ़ी, त्यों ही किसान जाति और धर्म में बटकर किसान के रूप में अपनी सशक्त पहचान को खोते चले गये। भाजपा जैसी साम्प्रदायिक पार्टी ने जहां मंदिर के नाम पर धर्म का कार्ड खुलकर खेला वहीं दूसरी ओर सामाजिक न्याय के नाम से बनी सपा, राजद, जदयू, बसपा जैसी पाटियों ने जातियों के नाम से राजनीति करने में कोई कोताही नही बरती। कुछ समय बाद भाजपा ने धर्म के साथ-साथ जातियों की भी महीन राजनीति प्रारम्भ कर दी। ऐसा होने से किसानों ने किसान के रूप में अपनी पहचान खो दी और धर्म और जाति के आधार पर बटते चले गये। पिछले एक दशक से भाजपा ने जातियों को लेकर बहुत महीन राजनीति की है। ऐसा होने से गैर यादव ज्यादातर किसान जातियां भाजपा के साथ हो हो गई जिससे सामाजिक न्याय के नाम से राजनीति करने वाली तमाम पार्टियां आज हाशिए पर आ गई हैं।


जैसा कि सर्वविदित है कि दिल्ली के 3 बॉर्डरों पर किसान विगत 9 माह से धरने पर बैठे हैं। किसानों की मांग है कि केन्द्र सरकार किसानों के हित के विरुद्ध लाये गये 3 कानूनों को रद्द करे जिन्हें किसान काले कानून कहते हैं। इसके साथ ही किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनन गारन्टी भी चाहते हैं। इन मांगों को लेकर लगभग 40 किसान संगठन विगत 9 माह से आन्दोंलनरत हैं। विगत कई माहों से वे जगह-जगह किसान महापंचायतें भी कर रहे हैं। अभी तक ज्यादातर किसान महापंचायत पंजाब, हरियाणा ओर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित रही हैं। ऐसा नहीं है कि इन प्रदेशों के बाहर किसान महापंचायत नहीं हो रही हैं लेकिन वो इतनी प्रभावशाली नहीं रही जितनी इन 3 प्रदेशों में रही हैं। ये सभी पंचायते संयुक्त किसान मोर्चा के तत्वाधान में हुई हैं।इसी 5 सितम्बर को उत्तर प्रदेश के मुजफरनगर में एक बहुत बड़ी किसान महापंचायत हुई जिसमें किसान नेताओं के व्दारा 5-10 लाख किसानों के शामिल होने का दावा किया गया है। हालांकि मीडिया में किसानों की संख्या पर मतभेद है लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि यह अभी तक की सबसे बड़ी किसान रैली हो सकती है। रैली में किसान नेताओं के व्दारा अपनी मांगों को मनवाने के लिए पुरजोर आवाज उठाने के साथ-साथ भाजपा पर ”वोट की चोट“ देने का भी आव्हान किया गया है। किसानों व्दारा ऐसी ही महापंचायतें उत्तर प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में भी करने की बात कही गई है। आगामी कुछ माह में प्रदेश के हर हिस्से में ऐसी अनेक महापंचायतें होने जा रही हैं। इन पंचायतों में भी ठीक-ठाक संख्या में किसानों के भाग लेने की उम्मीद है। यहां एक बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि क्या इन महापंचायतों में आने वाली भीड़ आगामी उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव में भाजपा के वोट पर भी प्रभावी चोट कर सकेगी? आज की तारीख में कहना मुश्किल है। भाजपा जिस तरह से जाति की महीन राजनीति करती है उससे तो यही लगता है कि जब विधान सभा चुनाव होंगे तो भाजपा अपने उम्मीदवारों की जातियों की गोटी इस तरह से फेंटेगी कि किसान एकता कायम नहीं रह सकेगी और किसान अपनी-अपनी जातियों में बटकर अपने जाति उम्मीदवारों को वोट डालेंगे। किसान आन्दोंलन में प्रमुख तौर से शामिल जाट जाति के उम्मीदवारों के सामने जाट समाज के अतिरिक्त अन्य जातियों को गोलबंद करेगी जैसा की उसने हरियाणा प्रदेश में किया है। कुछ प्रभावशाली जाट समाज के नेताओं को भी टिकट देकर भाजपा अपना मकसद हल करेगी।


गौरतलब है कि किसी भी आन्दोंलन के 3 चरण होते हैं। पहला गोलबंदी, दूसरा राजनैतिक प्रभाव और तीसरा इसे वोट में तब्दील करना। आज की तारीख में किसान नेता किसानों की गोलबंदी करने में तो सफल हो गये हैं लेकिन यह गोलबंदी राजनैतिक रूप से कितनी प्रभावी होगी और चुनाव के समय क्या यह वोट में तब्दील होगी, इसमें मुझे संदेह है। उत्तर प्रदेश का चुनाव अभी 5-6 माह दूर है। मुझे लगता है कि कुछ समय बाद उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार गन्ना किसानों का बकाया भुगतान, जो लगभग 12 से 14 हजार करोड़ है, का अधिकतर भुगतान कर देगी। आगामी कुछ दिनों में ही गन्ने का रेट भी बढ़ाये जाने की सम्भावना है। अगर ऐसा होता है तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बहुसंख्यक गन्ना किसानों को भाजपा अपने पक्ष में करने में कमयाब हो सकती है। मुझे तो यह भी लगता है कि आगामी महापंचायतों में जुड़ने वाली भीड़ का आंकलन करने के बाद केन्द्र सरकार आन्दोंलनरत किसानोंकी मांगों का भी समाधान कर सकती है। अगर ऐसा हुआ तो किसान आन्दोंलन स्वयं समाप्त हो जायेगा और भाजपा अपना राजनैतिक मकसद हासिल कर लेगी। यहां यह भी गौरतलब है कि आज किसानों के बीच न तो चौधरी चरण सिंह और चौधरी देवीलाल जैसे कद्दावर नेता हैं और ना ही राकेश टिकैत अपने पिता महेन्द्र सिंह टिकैत जैसे वसूल वाले हैं। राकेश टिकैत की पूर्व में भाजपा नेताओं से नजदीकी जगजाहिर है। आज की किसान राजनीति कल चुनाव के पूर्व कौनसी करवट ले ले, इसका अंदाजा लगाना बहुत कठिन है। उम्मीद की जाना चाहिए कि किसान नेता चुनाव तक एकजुट रह कर भाजपा को उत्तर प्रदेश में ही नहीं अपितु अन्य प्रदेशों में भी हरायेंगे लेकिन मुझे लगता है कि चुनाव के समय भाजपा की ”नोट की चोट“ किसानों के ”वोट की चोट“पर भारी पड़ सकती है ! 


-आजाद सिंह डबास-