कांग्रेस की यात्रा के नए पड़ाव

पंजाब कांग्रेस में जो कुछ हो रहा है, उसकी आशंका तो उसी दिन हो गई थी जिस दिन राहुल-प्रियंका वाड्रा ने सुनील जाखड़ को हटा कर नवजोत सिंह सिद्धू को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष मनोनीत किया था। लेकिन यह सारा ड्रामा इतनी जल्दी शुरू हो जाएगा, इसकी किसी को आशा नहीं थी। सीमावर्ती पंजाब में सोनिया कांग्रेस के इस नए प्रयोग से जो अस्थिरता पैदा हो गई है, उसको लेकर कांग्रेस के अनेक नेता अपनी-अपनी समझ और राजनीति के अनुसार टिप्पणी कर रहे हैं, लेकिन सबसे मज़ेदार टिप्पणी कांग्रेस के जाने-माने वकील कपिल सिब्बल ने की है। वे कह रहे हैं कि उन्हें समझ नहीं आ रहा कि कांग्रेस में निर्णय कौन ले रहा है? इतने दशकों से सोनिया कांग्रेस के मुक़द्दमे लड़ते हुए भी यदि उन्हें पता नहीं चला कि इस पार्टी में निर्णय कौन ले रहा है तब या तो वे झूठ बोल रहे हैं या फिर इस उम्र में ‘भोले’ बनने का असफल प्रयास कर रहे हैं। जिस रहस्य को कपिल सिब्बल दशकों में नहीं समझ पाए, उसे नवजोत सिंह सिद्धू कांग्रेस में शामिल होते ही समझ गए थे। इसलिए उन्होंने पहले दिन से ही राहुल और प्रियंका वाड्रा की शान में क़सीदे पढ़ने शुरू कर दिए थे। अमरेंद्र सिंह और कपिल सिब्बल की दिक्कत यही है कि वे अपने राजनीतिक फायदे के लिए इतना नीचे तो नहीं गिर सकते थे कि सार्वजनिक रूप से राहुल और प्रिंयका की जी हुज़ूरी में जुट जाएं। अमरेंद्र सिंह की एक और दिक्कत भी है। वे जानते हैं कि पंजाब जैसे सीमावर्ती राज्य में राजनीतिक अस्थिरता देश की सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा कर सकती है, ख़ासकर तब जब पाकिस्तान इसी अस्थिरता की प्रतीक्षा में बैठा हो।


सिद्धू को लेकर ऐसी आशंका उन्होंने जताई भी।  लेकिन  कैप्टन शायद समझते रहे कि राहुल और प्रियंका को भी इसकी चिंता जरूर होगी, इसलिए वे ऐसा कोई काम नहीं करेंगे जिससे पंजाब में राजनीतिक अराजकता पैदा हो जाए। सोनिया परिवार को समझने में कैप्टन यहीं धोखा खा गए। यही कारण था कि उन्हें अपमानजनक तरीके से बाहर जाना पड़ा। राहुल और प्रियंका समझते रहे कि सिद्धू और चरणजीत सिंह चन्नी की जोड़ी पंजाब के मतदाताओं को सोनिया परिवार की झोली में डाल देंगे। एक जाट चेहरा और दूसरा दलित चेहरा। दोनों का कम्बीनेशन कांग्रेस को विजय माला डलवा सकता था। लेकिन इस सारी दौड़धूप में से सिद्धू को क्या मिलेगा? यदि पंजाब में कांग्रेस जीत गई तो मुख्यमंत्री तो चन्नी ही बनेगा क्योंकि दलित चेहरे के नाम पर चुनाव जीत कर किसी जाट को मुख्यमंत्री बनाने का जोखिम तो नहीं उठाया जा सकता था। और यदि कांग्रेस हार गई तब तो सिद्धू के मुख्यमंत्री बनने का प्रश्न अपने आप दफन हो जाएगा। अब ले-देकर सिद्धू को यह संतोष दिलाया जा सकता था कि उनके चेले चपाटों को अच्छे पदों पर बिठा दिया जाए और नए मुख्यमंत्री की नकेल भी सिद्धू के हाथ में ही दे दी जाए। सिद्धू यहां भी धोखा खा गए। राजनीति में सभी के अपने-अपने चेले चपाटे होते हैं। किसी दूसरे के चेलों को गले में लटकाकर कोई नहीं चलता। जहां तक चन्नी की नकेल पकड़ने की बात है, इसकी शुरू के कुछ दिनों में सिद्धू ने आभास देने की कोशिश भी की। लेकिन शायद सिद्धू चन्नी को भी अच्छी तरह पहचान नहीं पाए। चन्नी को जानने वाले जानते हैं कि वे राजनीति की सीढि़यां अपने बलबूते चढ़े हैं, सिद्धुओं या रंधावाओं के बल पर नहीं। यह ठीक है कि अंतिम सीढ़ी इन दोनों की लड़ाई में वे चुपचाप चढ़ गए।


अब सिद्धू के पास इस्तीफा देने के सिवाय क्या विकल्प था? अब वे कांग्रेस में बैठ कर ‘ओटन लगे कपास’ का काम तो नहीं कर सकते थे। लेकिन न तो सिद्धू ने और न ही राहुल-प्रियंका ने एक बार भी यह सोचा कि सीमावर्ती पंजाब में वे जो नए प्रयोग कर रहे हैं, इससे सिवा राजनीतिक अराजकता के और कुछ नहीं मिलेगा। अलबत्ता पाकिस्तान इससे जरूर ख़ुश होगा क्योंकि वह पिछले कुछ समय से फिर पंजाब में आतंकवाद को बढ़ाने के प्रयास कर रहा है, जिसके रास्ते में अमरेंद्र सिंह बाधा थे। कांग्रेस के सांसद मनीष तिवारी ने, जिन्होंने अपने पिता को आतंकवादियों के हाथों खोआ है, ठीक ही कहा है कि इस सारे घटनाक्रम से कोई ख़ुश है तो पाकिस्तान है। सोनिया परिवार के इस प्रयोग ने पंजाब कांग्रेस को टुकड़े-टुकड़े कर दिया है। लेकिन लगता है राहुल-प्रिंयका ने अपनी नई कांग्रेस के लिए यही रास्ता चुना है। यही कारण है कि पंजाब में सिद्धू को स्थापित करने के बाद उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के टुकड़े-टुकड़े गैंग के सरगना और ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे हज़ार’ की अभिलाषा के नायक, ‘अफज़ल गुरु की सोच पर पहरा देने’ के लिए संकल्पित, सीपीआई के कन्हैया कुमार का पार्टी कार्यालय में अभिनंदन करते हुए उसे सोनिया परिवार में शामिल किया।


आलम यह था कि वहां सभी के सामने कन्हैया कुमार ने कहा कि कांग्रेस डूबता हुआ जहाज़ है, मैं इसे बचाने आया हूं। उसका पूरा भाषण यह संकेत दे रहा था कि कांग्रेस बहुत महान है, लेकिन इसके वर्तमान नेतृत्व ने इस जहाज़ को जर्जर कर दिया है। लेकिन अब मैं इसे बचाऊंगा। इस संबंध में कांग्रेस के इतिहास का पुराना कि़स्सा याद आ रहा है। कुमारमंगलम जाने-माने कम्युनिस्ट थे। लेकिन जब कम्युनिस्टों को लगा कि अपने बलबूते भारत में उनका कोई भविष्य नहीं है, तब उन्होंने रणनीति के तौर पर कांग्रेस पार्टी के भीतर चले जाने का निर्णय किया। इंदिरा गांधी कम्युनिस्टों की इस साजि़श को जानती थीं। परंतु कांग्रेस के भीतर के विरोधियों से लड़ने के लिए उन्हें कम्युनिस्टों की जरूरत थी जो उनके चेहरे को प्रगतिवादी रंग में बेच सकें। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय भी इसी रणनीति से उपजा था। लेकिन यह इंदिरा गांधी की दूरदृष्टि थी कि उन्होंने कम्युनिस्टों के लिए यूज एंड थ्रो की नीति का पालन किया। अब लगता है जेएनयू से निकली कम्युनिस्ट लॉबी अपने लाभ के लिए  कांग्रेस पर ही क़ब्ज़ा करना चाहती है। लगता है यह कांग्रेस के कम्युनिस्टकरण की शुरुआत है। राहुल-प्रियंका के इर्द-गिर्द इस प्रकार के तत्त्वों का घेरा कसता जा रहा है। मनीष तिवारी ने भी इसका संकेत किया है।


-कुलदीप चंद अग्निहोत्री-