चिंताजनक है महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा

विश्वभर में प्रतिवर्ष 25 नवम्बर को महिलाओं पर होने वाली हिंसा को रोकने के लिए 'अंतर्राष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस' मनाया जाता है।


इस दिन महिलाओं के विरुद्ध हिंसा रोकने के ज्यादा से ज्यादा प्रयास करने की आवश्यकता को रेखांकित करने वाले कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। पैट्रिया मर्सिडीज मिराबैल, मारिया अर्जेंटीना मिनेर्वा मिराबैल तथा एंटोनिया मारिया टेरेसा मिराबैल द्वारा डोमिनिक शासक रैफेल ट्रुजिलो की तानाशाही का कड़ा विरोध किए जाने पर उस क्रूर शासक के आदेश पर 25 नवम्बर 1960 को उन तीनों बहनों की हत्या कर दी गई थी। वर्ष 1981 से उस दिन को महिला अधिकारों के समर्थक और कार्यकर्ता उन्हीं तीनों बहनों की मृत्यु की पुण्यतिथि के रूप में मनाते आए हैं। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 17 दिसम्बर 1999 को एकमत से हर साल 25 नवम्बर का दिन ही महिलाओं के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय हिंसा उन्मूलन दिवस के रूप में मनाने के लिए निर्धारित किया गया। सरकारों, निजी क्षेत्र और प्रबुद्ध समाज से यौन हिंसा और महिलाओं के उत्पीड़न के विरुद्ध कड़ा रुख अपनाने का आग्रह करते हुए संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुतारेस का कहना है कि महिलाओं के प्रति हिंसा विश्व में सबसे भयंकर, निरंतर और व्यापक मानवाधिकार उल्लंघनों में शामिल है, जिसका दंश विश्व में हर तीन में से एक महिला को भोगना पड़ता है।


महिलाओं की सुरक्षा और सशक्तिकरण के क्षेत्र में कार्य करने के लिए वर्ष 2010 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 'संयुक्त राष्ट्र महिला' का गठन किया गया था। संयुक्त राष्ट्र महिला के आंकड़ों के अनुसार विश्वभर में 15-19 आयु वर्ग की करीब डेढ़ करोड़ किशोर लड़कियां जीवन में कभी न कभी यौन उत्पीड़न का शिकार होती हैं। करीब 35 फीसदी महिलाओं और लड़कियों को अपने जीवनकाल में शारीरिक एवं यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है। हिंसा की शिकार 50 फीसदी से अधिक महिलाओं की हत्या उनके परिजनों द्वारा ही की जाती है। वैश्विक स्तर पर मानव तस्करी के शिकार लोगों में 50 फीसदी व्यस्क महिलाएं हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार प्रतिदिन तीन में से एक महिला किसी न किसी प्रकार की शारीरिक हिंसा का शिकार होती है।


भारत के संदर्भ में महिला हिंसा को लेकर आंकड़ों पर नजर डालें तो स्थिति काफी चिंताजनक है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने कुछ दिनों पहले जो आंकड़े जारी किए हैं, उनके मुताबिक वर्ष 2020 में कोरोना महामारी के कारण राष्ट्रीय तालाबंदी के महीनों के रूप में चिह्नित एक वर्ष में महिलाओं और बच्चों के खिलाफ पारंपरिक अपराधों में भले कुछ कमी देखी गई लेकिन देश में अपराध के मामले 28 प्रतिशत बढ़ गए। जबकि लॉकडाउन के बाद महिलाओं और बच्चों के खिलाफ आपराधिक मामलों में तेजी आई है। एनसीआरबी के अनुसार देशभर में 2020 में बलात्कार के प्रतिदिन औसतन 77 मामले दर्ज किए गए और कुल 28046 मामले सामने आए। वर्षभर में पूरे देश में महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल 371503 मामले दर्ज किए गए, जो 2019 में 405326 और 2018 में 378236 थे। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2019 में महिलाओं के खिलाफ 405326 मामले सामने आए थे, जिनमें प्रतिदिन औसतन 87 मामले बलात्कार के दर्ज किए गए। रिपोर्ट के अनुसार देशभर में वर्ष 2018 के मुकाबले 2019 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों में 7.3 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई थी।


एनसीआरबी के अनुसार देश की राजधानी दिल्ली में वर्ष 2020 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 10093 मामले दर्ज किए गए। जबकि 2019 में ऐसे 13395 मामले सामने आए थे अर्थात् 2019 की तुलना में 2020 में महिलाओं के खिलाफ 24.65 फीसदी अपराध कम हुए। 2019 के मुकाबले दिल्ली में 2020 में भले ही महिलाओं के खिलाफ अपराध करीब 25 प्रतिशत घट गए लेकिन कोविड-19 महामारी और लॉकडाउन के कारण जब देश की अधिकांश आबादी अपने घरों में थी, स्कूल-कॉलेज बंद थे, वर्क फ्रॉम होम चल रहा था, ऐसे में भी 2020 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 10093 मामले सामने आना कम चिंताजनक नहीं है। 2020 में दिल्ली में महिलाओं के अपहरण के 2938, बलात्कार के प्रयास के 9 और बलात्कार या सामूहिक बलात्कार के बाद हत्या का एक मामला दर्ज किया गया। यही नहीं, इस दौरान देशभर में साइबर अपराध 2019 के मुकाबले 11.8 फीसदी बढ़ा है। भारत में 2020 में साइबर अपराध के 50035 मामले दर्ज किए गए जबकि 2019 में साइबर अपराध के 44735 और 2018 में 27248 मामले दर्ज हुए थे।


वर्ष 2012 में दिल्ली में हुए निर्भया कांड के बाद देशभर में सड़कों पर महिलाओं के आत्मसम्मान के प्रति जिस तरह की जन-भावना और युवाओं का तीखा आक्रोश देखा गया था, यौन हिंसा रोकने के लिए जिस प्रकार कानून सख्त किए गए थे, उसके बाद लगने लगा था कि समाज में इससे संवदनशीलता बढ़ेगी और ऐसे कृत्यों में लिप्त असामाजिक तत्वों के हौसले पस्त होंगे किन्तु विडंबना है कि समूचे तंत्र को झकझोर देने वाले निर्भया कांड के बाद भी हालात यह है कि कोई दिन ऐसा नहीं बीतता, जब महिला हिंसा से जुड़े अपराधों के मामले देश के कोने-कोने से सामने न आते हों। होता सिर्फ यही है कि जब भी कोई बड़ा मामला सामने आता है तो हम पुलिस-प्रशासन को कोसते हुए संसद से लेकर सड़क तक कैंडल मार्च निकालकर या अन्य किसी प्रकार से विरोध प्रदर्शन कर रस्म अदायगी करके शांत हो जाते हैं और पुनः तभी जागते हैं, जब ऐसा ही कोई बड़ा मामला पुनः सुर्खियां बनता है, अन्यथा महिला हिंसा की छोटी-बड़ी घटनाएं तो बदस्तूर होती ही रहती हैं। ऐसे अधिकांश मामलों में प्रायः पुलिस-प्रशासन का भी गैरजिम्मेदाराना रवैया ही सामने आता रहा है।


अहम प्रश्न यही है कि निर्भया कांड के बाद कानूनों में सख्ती, महिला सुरक्षा के नाम पर कई तरह के कदम उठाने और समाज में आधी दुनिया के आत्मसम्मान को लेकर बढ़ती संवेदनशीलता के बावजूद आखिर ऐसे क्या कारण हैं कि बलात्कार के मामले हों या छेड़छाड़ अथवा मर्यादा हनन या फिर अपहरण अथवा क्रूरता, 'आधी दुनिया' के प्रति अपराधों का सिलसिला थम नहीं रहा है? इसका एक बड़ा कारण यही है कि कड़े कानूनों के बावजूद असामाजिक तत्वों पर वह कड़ी कार्रवाई नहीं होती, जिसके वे हकदार हैं। इसके अभाव में हम ऐसे अपराधियों के मन में भय पैदा करने में असफल हो रहे हैं। हैदराबाद की बेटी दिशा का मामला हो या उन्नाव पीड़िता का अथवा हाथरस या बुलंदशहर की बेटियों का, लगातार सामने आते इस तरह के तमाम मामलों से स्पष्ट है कि केवल कानून कड़े कर देने से ही महिलाओं के प्रति हो रहे अपराध थमने वाले नहीं हैं। इसके लिए सबसे जरूरी है कि तमाम सरकारें प्रशासनिक मशीनरी को चुस्त-दुरुस्त करने के साथ ऐसे अपराधों के लिए प्रशासन की जवाबदेही सुनिश्चित करें और ऐसे मामलों में कोताही बरतने वाले जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ सख्त कदम उठाए जाएं।


-योगेश कुमार गोयल-

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)