हींग लगे न फिटकरी....! - सरकारी धन से चुनाव प्रचार की रीति.... कहाँ तक ठीक....?

आपको याद होगा प्रसिद्ध विचारक अब्राहम लिंकन द्वारा रचित प्रजातंत्र की वह परिभाषा जिसमें ‘प्रजा’ को अहम् बताते हुए कहा गया था- ‘‘सरकार जनता की, जनता के लिए और जनता के द्वारा’’ (गवर्तमेंट आॅफ द पिपुल, फाॅर द पिपुल एण्ड आॅफ द पिपुल)। किंतु मौजूदा राजनीति ने इस परिभाषा को बदलकर ‘जनता’ (पिपुल) की जगह ‘सत्ता’ को बैठा दिया है, अर्थात् अब प्रजातंत्र की परिभाषा ‘‘सरकार सत्ता के लिए, सत्ता के द्वारा और सत्ता की’’ हो गई है, अब प्रजातंत्र से ‘प्रजा’ को लोप हो गया है और ‘तंत्र’ सत्ता का सेवक बनकर रह गया है, यहाँ ‘सत्ता’ से मतलब स्वार्थ की राजनीति से है। आज की राजनीति का एक मात्र लक्ष्य ‘जनसेवा’ नहीं, सिर्फ और सिर्फ ‘सत्ता’ रह गया है। अर्थात् आज की सरकारें जितने भी जनसेवा का नबाक ओढ़कर कार्य करता है, वे सब स्वार्थपूर्ण राजनीति व सत्ता की चासनी में लिपटे होते है। जनता से करों के रूप में वसूली गई भारी धनराशि से जितने भी कथित विकास कार्य किये जा रहे है उन विकास कार्यों के पीछे भी ‘जनसेवा’ कम राजनीतिक ‘ढ़िंढोरा’ ज्यादा होता है, फिर वे चाहे हजारों किलोमीटर की सड़कों के निर्माण हो या अन्य कोई कार्य और अब तो यह रीत ही बन गई है कि जनता से एकत्र सरकारी धन ऐसे कार्यों पर खर्च करो जिनसे राजनीतिक स्वार्थ सिद्धी ज्यादा हो, फिर चाहे वे जनता के लिए उपयोगी हो या नहीं?


....और अब तो उत्तरप्रदेश ने कुछ ऐसी स्वार्थ सिद्धी की पवित्र नदियों के नाम पर राजपथ निर्माण की ऐसी आंधी चलाई कि वह सभी भाजपाशासित राज्यों में तेजी से फैलती जा रही है, उत्तरप्रदेश में ‘गंगा’ के नाम पर तो मध्यप्रदेश में ‘नर्मदा’ के नाम पर लम्बे राजपथ तैयार किये जा रहे है। यह तो हुई जनता की गाढ़ी कमाई की बर्बादी की चर्चा, अब यदि मौजूदा राजनीति को प्रजातंत्र के अन्य मूल सिद्धांतों की कसौटी पर कस कर देखें तो हमें हर तरफ निराशा ही निराशा महसूस होने लगती है। निराशा का मूल कारण अब राज कार्यों में राजनीतिक स्वार्थ की मात्रा अधिक होना व जनसेवा का अंश कम होना है।


आज हर कहीं यही देखने को मिलता है कि जिस भावना से चुनाव लड़े जाते है और जिस अपेक्षित भावना से जनता अपने प्रतिनिधि चुनती है दोनों तत्वों के बीच सोच-समझ का काफी अंतर पैदा हो गया है, चुनावी घोषणा-पत्र अब सिर्फ जनता को आकर्षित करने के माध्यम ही बनकर रह गए है न इन घोषणा-पत्रों की घोषणाओं को मूर्तरूप मिल पाता है और न लाखों मतदाताओं के सामने किये गए वादें ही पूरे हो पाते है, पांच सालों के साढ़ महीनों में एक या दो महीने जनता (मतदाता) की पूछ-परख के होते है, बाकी अट्ठावन महीनें मतदाता ही याचक बने रहने को मजबूर होता है, यह भी आजकी आम राजनीति का मुख्य चलन बन गया है। यह बात मैं किसी राजनीतिक दल विशेष के बारे में नहीं बल्कि राजनीति के पूरे ‘कुएँ’ में घोली गई ‘स्वार्थ’ की ‘भाँग’ की बात कर रहा हूँ।

आज सत्ता प्राप्ति तक सत्ता हथियाने के हथकंड़ों पर जोर दिया जाता है और सत्ता का सिंहासन प्राप्त होने के बाद इस सिंहासन को ‘दीर्घजीवी’ बनाने के जोड़-तोड़ शुरू हो जाते है और यह प्रक्रिया अगले चुनाव होने तक अनवरत जारी रहती है और इन्हीं प्रयासों या जोड़-तोड़ की ‘धुंध’ में ‘जनसेवा’ का लोप हो जाता है, आज की राजनीति की यही त्रासदी है। आज शासन की सेवा करने वाला आम सरकारी मुलाजिम अपनी जिन्दगी के तीन दशक पूरे आत्म समर्पण भाव से सरकार को सौंपने के बाद भी उसे शेष जिन्दगी गुजारने के लिए वे सब संसाधन नहीं मिल पाते जो महज पांच साल सरकार में अहम पदों पर रहकर लूटमार करने वाले राजनेताओं को मिल जाते है, सेवा करने और सेवा का ढ़िंढोरा पीटने वालों के बीच आज के प्रजातंत्र में यही मूल अंतर है, क्या यही सब दिखाने के लिए हमारे पूर्वज शहीदों ने अपना सर्वस्व लुटाकर आजादी प्राप्त की थी, अभी देश की जनता की इस दिशा में ‘तंद्रा’ टूटी नहीं है, जिस दिन जनता जागृत हो जाएगी तो फिर क्या होगा? कल्पना से परे है? 


-ओमप्रकाश मेहता-