शर्म आपको आती पता नहीं, लेकिन हमें 'आप' पर तो आती है...

महिलाओं के प्रति की जाने वाली अभद्र टिप्पणियों के लिए भारतीय लोकतंत्र बदनाम है। ऐसे में यूं कहें कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का मंदिर अमर्यादित भाषा के वायरस से कलंकित हो रहा है। फ़िर यह अतिश्योक्ति नहीं। आज के दौर में हम विकसित होने का ढोंग भले रच लें, लेकिन सोच और समझ हमारी रसातल में जा पहुँची है। देश के शीर्ष पदों पर बैठे लोगों से लेकर निचले स्तर तक के लोग महिलाओं के खिलाफ बदजुबानी में पीछे नहीं रहते। ऐसे में सवाल कई उठते, लेकिन जब लोकराज ही बिना लोकलाज के चलने लगें। फिर उन सवालों का ज़्यादा औचित्य नहीं? भारत के संविधान में विधायिका को अनुच्छेद-109 (संसद) और अनुच्छेद-194 यानी विधानसभा के तहत विशेषाधिकार प्राप्त हैं और ये विशेषाधिकार इसलिए जरूरी हैं ताकि विधायिका नागरिकों के मुद्दे उठाने और क़ानून बनाने के दौरान हुए वार्तालाप को लेकर स्वतंत्र महसूस कर सके। लेकिन जब हम अतीत को देखते हैं फ़िर वर्ष 2003 में तमिलनाडु विधानसभा अध्यक्ष ने 'द हिन्दू' के चार पत्रकारों और एक प्रकाशक के विरुद्ध एक अरेस्ट वारंट सिर्फ इसलिए जारी कर दिया था, क्योंकि उस अख़बार में तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय जयललिता के खिलाफ कुछ ऐसा लिख दिया गया था जो अध्यक्ष महोदय को पसंद नहीं। लेकिन बीते दिनों जो कर्नाटक के विधानसभा में हुआ उसका क्या? सवाल ऐसे में यही बनता है। बीते दिनों जो कर्नाटक विधानसभा में हुआ। उसे दुनिया ने देखा। अब ऐसे में सवाल यही क्या हम एक ऐसे आधुनिक भारत के निर्माण की तरफ़ बढ़ रहे, जहां मानसिक रूप से अक्षम नागरिकों की फ़ौज बढ़ रही बस?


हर वर्ष 16 दिसंबर को निर्भया बलात्कार की घटना की बरसी होती है और उसके एक दिन बाद ही यानी 17 दिसंबर को कर्नाटक विधानसभा में वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर एक फूहड़ संवाद हुआ। संवाद भी ऐसा जिससे मानव जाति अपमानित हो जाएं, लेकिन सियासतदां कहाँ आते मानव जाति में? उनकी तो एक अलग श्रेणी होती है। ऐसे में कांग्रेस नेता व पूर्व विधानसभा अध्यक्ष रमेश कुमार ने एक कहावत का हवाला देते हुए व 'चेयर' को संबोधित करते हुए कहा कि, "जब रेप होना ही है तो लेट जाओ और मजे लो।" यह बयान विधानसभा अध्यक्ष का जितना घिनौना था उससे कहीं अधिक घिनौनी वह सोच है जो ऐसे नेताओं को सदन में प्रतिभाग लेने का अवसर उपलब्ध कराती हैं। पर अफ़सोस की इस शर्मसार कर देने वाली घटना को भी हमारे देश के राजनेता पक्ष विपक्ष की राजनीति के तराजू पर तोल रहे है। ऐसे में शायद वो यह भूल गए हैं कि जिस संविधान ने उन्हें अभिव्यक्ति की आजादी दी है उसी लोकतंत्र के मंदिर में महिलाओं को अपशब्द कहें जा रहे है। हमारे राजनेताओं को सत्ता के सुख की ऐसी लत लगी है कि वह अपनी मर्यादा तक को ताक पर रख बैठे है। वह भूल गए है कि जिस देश में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और राजा हरिश्चंद्र जैसे प्रतापी राजाओं ने जन्म लिया है। जिन्होंने राजधर्म के नये कीर्तिमान गढ़े हो उस देश के राजनेता सत्ता सुख में मर्यादा विहीन हो चले है। इतना ही नहीं हमारे राजनेता यह तक भूल बैठे है कि जिस संविधान ने उन्हें अभिव्यक्ति की आजादी दी है। उसी लोकतंत्र के मंदिर को कलंकित करने से वे बाज़ नहीं आ रहे है।


एक मशहूर शायर फैज अहमद फैज हुए हैं जिनका लिखा एक गीत है। जिनकी चंद लाइनें याद आती है कि, "बोल के लव आज़ाद है तेरे...!" वैसे उन्होंने जब ये लाइनें लिखी होगी तब शायद ही यह सोचा हो कि एक दिन अभिव्यक्ति की आज़ादी का निहितार्थ सियासतदानों द्वारा इस संदर्भ में निकाला जाएगा। वैसे सोचने वाली बात यह है कि हमारे देश में जब-जब राजनेताओं के सुर बिगड़े है तब-तब ही महिलाओं के चरित्र का चीरहरण किया गया है। महिलाओं के दामन पर उंगली उठाना तो जैसे अब राजधर्म बन गया है। कुर्सी का खेल मुग़लई दौर का होता जा रहा है। अंतर सिर्फ इतना है कि तब तलवार का बोलबाला था आज संवैधानिक लोकतंत्र में अलोकतांत्रिक बदज़ुबानी का। जिस संसद में एक तऱफ महिलाओं को बराबरी का हक दिलाने के लिए उनकी शादी की उम्र को 18 साल से बढ़कर 21 साल किए जाने का विधेयक लाया जा रहा। वहीं दूसरी तरफ़ कर्नाटक के विधानसभा में एक विधायक महिलाओं के रेप को एंजॉय करने की बात कह रहे है। इतना ही नहीं अफ़सोस की ये सारी बाते विधायक महोदय विधानसभा में किसान मुद्दे पर चर्चा की मांग पर बहस करने की बात को लेकर कह रहे थे। देश का दुर्भाग्य देखिए कि इस शर्मनाक टिप्पणी पर विधानसभा में उपस्थित अन्य विधायक भी ठहाके लगाने से बाज नहीं आएं। विधानसभा अध्यक्ष भी ऐसे इन बातों का चटकारा ले रहे थे, जैसे वो भूल गए हो कि उन्हें विशेषाधिकार प्राप्त हैं, लेकिन आधी आबादी के प्रति ऐसी घिनौनी सोच भी कहीं न कहीं विशेषाधिकार पर सवालिया निशान उठाती है, लेकिन इन बातों का फ़र्क कहाँ पड़ता इन नेताओं को? ज़्यादा हुआ तो मांग लेंगे माफ़ी और हो जाएगी खानापूर्ति। वैसे महाभारत काल में भी द्रौपदी के चीरहरण पर पूरी सभा धृतराष्ट्र बनकर तमाशा देखती रही और उसी इतिहास को एक बार फिर दोहराने की कोशिश कर्नाटक के विधानसभा में की गई और आज फिर पूरा देश इस घटना को अपना मौन समर्थन दे रहा है। दे भी कैसे नहीं क्योंकि यह पहली दफ़ा नहीं जब किसी पार्टी के नेता ने महिलाओं के ख़िलाफ़ अनर्गल बयानबाजी की हो। हमारे राजनेता तो जैसे महिलाओं पर अभद्र टिप्पणी करने में महारथ हासिल करके बैठे हो। उन्हें कहाँ फर्क पढ़ने वाला है? उनकी रगों में तो पितृसत्तात्मक सोच का वायरस भर गया है। वैसे भी औरत के अस्तित्व को हमारा समाज स्वीकार ही कहाँ करता है? औरत के पैदा होते ही उसके अस्तित्व का ठेका उसके पिता के हाथों में होता है, शादी के बाद पति और मां बनने के बाद खुद ही अपने बच्चों के हाथ मे सौंप देती है। औरत खुद क्या करती है? त्याग अपने सपनों का अपने अस्तित्व का? लेकिन अफ़सोस की इस त्याग, इस बलिदान का कोई सम्मान तक नहीं करता है, क्योंकि समाज औरत के त्याग को उसका फर्ज मान लेता है और वहीं औरत उसे अपना कर्म मानकर चुपचाप सहन करती चली जाती है। अपने वजूद तक को मिटा देती है। औरत के त्याग को समाज ने उसकी कमज़ोरी जो मान लिया है।


वैसे यह पहली बार नही है जब कर्नाटक के विधायक रमेश कुमार ने महिलाओं ख़िलाफ़ अमर्यादित बयान दिए है। इससे पहले 2019 में विधानसभा अध्यक्ष के कार्यकाल के समय वह अपनी तुलना रेप पीड़िता से कर चुके है। उनके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि जुबान फिसलना कोई बड़ी बात नहीं है। क्या हुआ जो महिलाओं के लिए अभद्र बोल दिया बाद में माफ़ी भी मांग लेते है। कौन सा उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई होना है। कुछ दिन हंगामा होगा फिर सब खामोश हो जाएंगे और यह सिलसिला जारी रहेगा। वैसे उत्तरप्रदेश में कांग्रेस पार्टी महिलाओं को चुनाव लड़ने के लिए 40 प्रतिशत आरक्षण की बात कह रही है, और उन्ही की पार्टी के नेता महिलाओं के लिए अपमानजनक बात कह रहे है, कितनी अजीब विडंबना है हमारे देश की। जहां रमेश कुमार के बयान का विवाद थमा भी नहीं था कि समाजवादी पार्टी के सांसद एसटी हसन ने भी लड़कियों को लेकर अनर्गल बात कर दी है। उनका मानना है कि लड़कियों की शादी की उम्र को कम कर देना चाहिए, शादी में देर होगी तो वह पोनोग्राफी वाले वीडियो देखेगी। समाजवादी पार्टी के ही सांसद शफीक उर रहमान वर्क ने भी महिलाओ के उम्र बढ़ाने का विरोध किया है उनका मानना है कि अगर ऐसा होगा तो लड़कियां आवारा हो जाएगी। प्रख्यात समाजवादी नेता डॉ राममनोहर लोहिया ने कहा था कि "लोकराज, लोकलाज से ही चलता है"। आज ऐसे प्रखर समाजवादी नेता के विचारों को उन्हीं की पार्टी के नेता डुबाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे है।


महिलाएं आधी आबादी का प्रतिनिधित्व कर रही है। देश दुनिया में अपनी बुलंदी का परचम लहरा रही है। ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां महिलाओं ने अपनी कामयाबी के झंडे न गाड़े हो। पर आज भी हमारा समाज पितृसत्तात्मक सोच से ग्रसित है। जहां औरतों को कमज़ोर माना जाता है। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन की रिपोर्ट की माने तो महिलाएं पुरुषों से ज्यादा काम करती है, फिर कैसे उन्हें कमज़ोर कहा जा सकता है। हमारा समाज सदियों से महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करता आया है। यहां तक कि हमारे इतिहास को भी अपने मतलब के लिए गलत तरीके से परिभाषित किया गया। यही वजह है कि जब किसी लड़की का बलात्कार होता है तो उसे उसके खानदान की इज्जत से जोड़ दिया जाता है। रेप होने से महिला की इज्ज़त चली जाने की बात कही जाती है, जबकि जो लड़का बलात्कार करता है उसे हमारा ही समाज पुरुषत्व मान कर महिमा मण्डन करता है। लड़की को ही गलत ठहरा दिया जाता है। कभी उसके कपड़े पर सवाल उठाया जाता है तो कभी उसके चरित्र पर। जब तक समाज का यह दोहरा रवैया नहीं बदल जाता तब तक महिलाओं की स्थिति नहीं सुधर सकती। ऐसे में अब महिलाओं को एकजुटता दिखानी होगी। उन्हें पार्टी से ऊपर उठकर एकजुट होना होगा। सरकार से मांग करनी होगी महिलाओं के ख़िलाफ़ अभद्र बयानबाजी पर कड़ी सजा का प्रावधान बनाया जाए। महिलाओं को ख़ुद इसका विरोध करना होगा। चाहे सार्वजनिक मंच हो या फिर घर की चारदीवारी, महिलाओं को विरोध के लिए मुखर होना होगा। तभी समाज में महिलाओं की स्थिति बेहतर हो सकेगी।


-सोनम लववंशी-