संविधान में 127 बार बदलाव:फिर भी कॉन्सटिट्यूशन का सार जस का जस, इसे संसद भी चाहे तो नहीं बदल सकती

भारत में 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हुआ। तब 73 साल में 127 संविधान संशोधन हो चुके हैं। इतने बदलावों के बाद भी हमारे संविधान का मूल आधार जस का तस है। दरअसल, इसकी वजह यह है कि संविधान में बदलाव के लिए संसद की मंजूरी जरूरी होती है। संसद में संविधान को बदलने का हर प्रस्ताव बहस और वोटिंग से गुजरता है, तब उस पर फैसला लिया जाता है।

खास बात यह है कि अगर बहुमत के आधार पर संसद से संविधान में बदलाव कर भी दिया जाए, तो कोर्ट में उसे चैलेंज किया जा सकता है। कोर्ट के पास इसे रिव्यू करने और यह तय करने का अधिकार है कि ऐसे किसी बदलाव से संविधान का मूल ढांचा न बदले। कॉन्स्टीट्यूशन के आर्टिकल 368 में तीन तरह से संविधान संशोधन करने का जिक्र है

संविधान में कितने बदलाव की इजाजत है और किन चीजों को नहीं बदला जा सकता... संविधान और कानून विशेषज्ञों से समझिए...

1. संसद चाहे तो भी मूल संरचना नहीं बदल सकती
सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट ध्रुव गुप्ता कहते हैं कि किसी भी तरह से संविधान की मूल संरचना को नहीं बदला जा सकता। इसका मतलब लोकतांत्रिक आदर्शों की व्याख्या करने वाले प्रावधानों को किसी संशोधन के जरिए नहीं हटाया जा सकता। दरअसल, संविधान में मूल संरचना साफ तरीके से नहीं लिखी गई है। इसीलिए इन पर कन्फ्यूजन है। सुप्रीम कोर्ट के दो फैसले इसे साफ करते हैं...

  • 1971 में सुप्रीम कोर्ट के 11 जजों की बेंच ने कहा था कि संसद को लोगों के मौलिक अधिकार कम करने की अथॉरिटी नहीं है। आर्टिकल 368 के जरिए तहत संविधान की मूल संरचना नहीं बदली जा सकती। हालांकि, संविधान में 24वें संशोधन के जरिए इसे बदल दिया गया।
  • केरल के धर्मगुरु केशवानंद भारती केस में 13 जजों की पीठ ने बहुमत से फैसला दिया था कि संविधान संशोधन पर इकलौता प्रतिबंध यह है कि इसके जरिए संविधान के मूल ढांचे को क्षति नहीं पहुंचाई जा सकती।

2. संविधान सभा का महत्व मौजूदा संसद से ज्यादा
सुप्रीम कोर्ट का तर्क था कि संविधान सभा का महत्व मौजूदा विधायिका की तुलना में ज्यादा है। इसलिए संसद संविधान के सार तत्व को नहीं बदल सकती। इनमें संविधान की सर्वोच्चता, धर्मनिरपेक्षता, व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा शामिल हैं।

3. लोकतंत्र की मजबूती के लिए संविधान जरूरी
दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान होने के बाद भी इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन में आधारभूत ढांचे की साफ परिभाषा नहीं है। न्यायपालिका इसकी व्याख्या करती है, जिस पर कई बार विवाद होता है। एक्सपर्ट्स कहते हैं कि ऐसे अपवादों के बावजूद संविधान का मूल ढांचा विधायिका यानी संसद को निरंकुश होने से रोकता है और लोकतंत्र को मजबूत करता है।

सुप्रीम कोर्ट के तीन फैसले जिनसे संविधान के मूल ढांचे को बरकरार रखने और बदलावों की समीक्षा करने के बारे में कहा गया है...

1. इंदिरा गांधी केस: 1975 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनाव में सरकारी मशीनरी के गलत इस्तेमाल का दोषी मानते हुए उनका निर्वाचन रद्द कर दिया था। कोर्ट ने इसे रिप्रजेंटेशन ऑफ द पीपल एक्ट (Representation of the People Act) के सेक्शन 123(7) का उल्लंघन माना।

इंदिरा सुप्रीम कोर्ट गईं तो अदालत ने स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव को संविधान की आधारभूत अवसंरचना का भाग माना और कहा कि इस मामले की न्यायिक समीक्षा हो सकती है।

2. मिनर्वा मिल केस: 1980 में कर्नाटक की टेक्सटाइल कंपनी मिनर्वा मिल्स बनाम भारत सरकार केस में सुप्रीम कोर्ट फैसला दिया कि संविधान के आर्टिकल 368 का सेक्शन (4) कानूनन सही नहीं है, क्योंकि इसे ज्यूडिशियल रिव्यू को खत्म करने के लिए पास किया गया था। कोर्ट ने कहा कि रिट दाखिल करने का अधिकार संविधान का आधारभूत लक्षण है। ।

3. एसआर बोम्मई केस: 1988 में कर्नाटक में एसआर बोम्मई की सरकार में से 19 विधायकों ने समर्थन वापस ले लिया था। इसके बाद राज्यपाल ने राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर दी। केंद्र सरकार ने आर्टिकल 356 के तहत बोम्मई की सरकार बर्खास्त कर दी।

इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर केन्द्र राज्य में चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करता है, तो कोर्ट इसके कारणों की समीक्षा कर सकता है। किसी राज्य सरकार के बहुमत का फैसला विधानसभा में होना चाहिए, राजभवन में नहीं

अंबेडकर ने भी रिट के अधिकार को संविधान का दिल कहा
संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि लोगों का, लोगों के लिए और लोगों के द्वारा तैयार की गई नियमावली है। इसे ही संविधान की आत्मा कहा जाता है, लेकिन डॉ बीआर अंबेडकर ने रिट दाखिल करने के अधिकार को संविधान का दिल करार दिया। इसे लीगल टर्म में 'संवैधानिक उपचार' कहा जाता है। इसी के आधार पर सुप्रीम कोर्ट आर्टिकल 32 और हाईकोर्ट आर्टिकल 226 के तहत पांच तरह की रिट पर एक्शन लेते हैं।

यहां जिस आर्टिकल 32 की बात हो रही है, उसमें लोगों के मूल अधिकारों के संरक्षण की गारंटी दी गई है। साथ ही यह कहा गया है कि अधिकारों को सुरक्षित रखने का तरीका आसान और छोटा होना चाहिए। हालांकि इसके तहत केवल नागरिकों के मूल अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी दी गई है, कानूनी अधिकार इसमें शामिल नहीं हैं।

संविधान के मूल ढांचे को लेकर कन्फ्यूजन पर जानकार क्या कहते हैं... इसे दो किताबों के रेफरेंस से समझा जा सकता है...

1. संविधान अच्छा या बुरा, काम करने वाले तय करते हैं
दि इंडियन कांस्टीट्यूशन के लेखक माधव खोसला ने डॉ बीआर अंबेडकर का हवाला देते हुए लिखा है कि संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, अगर इस पर काम करने वाले लोग खराब होंगे तो यह खराब होगा और संविधान कितना भी खराब क्यों न हो, अगर इसके लिए काम करने वाले लोग अच्छे होंगे तो यह अच्छा होगा।

2. भविष्य की मुश्किलें देखकर संविधान नहीं लिखा गया
दि फाउंडिंग मोमेंट: सोशल जस्टिस इन द कांस्टीट्यूशनल मिरर लिखने वाले राजनीतिक विश्लेषक समीर के दास कई चूकों की तरफ इशारा करते हैं। उन्होंने ग्रेनविल ऑस्टिन के 1966 के 'दि इंडियन कॉस्टीट्यूशन कॉर्नर स्टोन ऑफ ए नेशन' का जिक्र करते कहा है कि संविधान निर्माता भविष्य की जटिलताओं और घटनाओं को नहीं देख पाए।

हालांकि, अपनी किताब में दास ने यह भी कहा है कि संविधान में मौजूद न्याय की तमाम अवधारणाओं में खामियों के बावजूद संविधान की ठीक व्याख्या और अमल से लोकतांत्रिक पतन रोकने में बड़ी मदद मिल सकती है।