6 करोड़ साल पहले पेड़-पौधों के दबने से बने पत्थर

लखनऊ: नेपाल के जनकपुर से 40 टन वजनी शालिग्राम की 2 शिलाएं 7 दिन के सफर के बाद बुधवार रात अयोध्या पहुंचीं। इन्हीं शिलाओं से भगवान राम और माता सीता की भव्य मूर्तियां बनाई जाएंगी। माना जा रहा है कि ये मूर्तियां अयोध्या में बने भव्य राम मंदिर के गर्भगृह में स्थापित की जाएंगी।

वैज्ञानिक मान्यता : 6 करोड़ साल पहले बने जीवाश्म पत्थर

साइंस की भाषा में शालिग्राम डेवोनियन-क्रिटेशियस पीरियड का एक काले रंग का एमोनोइड शेल फॉसिल्स है। डेवोनियन-क्रिटेशियस पीरियड 40 से 6.6 करोड़ साल पहले था। ये वो पीरियड था जब धरती के 85% हिस्से पर समुद्र होता था।

जीवाश्म शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है, ‘जीव’ तथा ‘अश्म’। अश्म का अर्थ होता है-पत्थर। इस प्रकार जीवाश्म का अर्थ हुआ वह जीव जो पत्थर बन गया। अंग्रेजी में जीवाश्म को फॉसिल कहा जाता है।

जीवाश्म करोड़ों सालों तक पृथ्वी की सतह में गहरे दबे हुए जंतुओं एवं वनस्पति अवशेषों से बने हैं। जीव अवशेष धीरे-धीरे तलछट के नीचे दबकर एकत्रित हो जाते हैं जिससे उन्हें ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं हो पाती। तलछट के आवरण के कारण न तो जीव अवशेषों का ऑक्सीकरण हो पाता है और न ही विघटन। इसी के चलते ये जीवाश्म मजबूत और कठोर चट्‌टान में बदल जाते हैं।

प्राचीनकाल की मूर्तिकला में इस पत्थर का इस्तेमाल किया जाता रहा है। शालिग्राम पत्थर बेहद मजबूत होते हैं। इसलिए शिल्पकार बारीक से बारीक आकृति उकेर लेते हैं। अयोध्या में भगवान राम की सांवली प्रतिमा इसी तरह की शिला पर बनी है।

जीवाश्मों को हिंदू पवित्र मानते हैं क्योंकि माधवाचार्य ने उन्हें अष्टमूर्ति से प्राप्त किया था। माधवाचार्य को व्यासदेव के नाम से भी जाना जाता है। यह विष्णु के प्रतीक यानी शंख जैसा होता है। शालिग्राम अलग-अलग रूपों में मिलते हैं। कुछ अंडाकार होते हैं तो कुछ में एक छेद होता है। इस पत्थर में शंख, चक्र, गदा या पद्म की तरह निशान बने होते हैं।

धार्मिक मान्यता: भगवान विष्णु ने तुलसी के पति को छल से मारा, शाप के चलते पत्थर बने

देवी भागवत पुराण के अध्याय 24, शिव पुराण के अध्याय 41 के अलावा ब्रह्मवैवर्त पुराण में शालिग्राम शिला की उत्पत्ति के बारे में विस्तार से बताया गया है। वृषध्वज नाम का एक राजा था। वह शिव के अलावा किसी और देवता की पूजा नहीं करता था। इसी के चलते सूर्य ने उसे शाप दिया कि वह और उसकी पीढ़ियां गरीब ही रहेंगी।

अपनी खोई हुई समृद्धि को पाने के लिए वृषध्वज के पोते धर्मध्वज और कुशध्वज देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करते हैं। देवी लक्ष्मी तपस्या से प्रसन्न होती हैं और उनकी समृद्धि लौटा देती हैं। साथ ही दोनों की पुत्रियों के रूप में जन्म लेने का वरदान देती हैं।

इसके बाद देवी लक्ष्मी कुशध्वज की बेटी वेदवती और धर्मध्वज की बेटी तुलसी के रूप में अवतार लेती हैं। तुलसी अपने पति के रूप में भगवान विष्णु को पाने के लिए बद्रिकाश्रम में तपस्या करने चली जाती हैं। ब्रह्मा उन्हें बताते हैं कि इस जीवन में पति के रूप में विष्णु उन्हें नहीं मिलेंगे और उन्हें शंखचूड़ नामक दानव से विवाह करना होगा।

अपने पिछले जन्म में शंखचूड़ ही सुदामा थे। दरअसल, राधा ने सुदामा को शाप दिया था कि वह अगले जन्म में दानव बनेंगे। इसी वजह से शंखचूड़ स्वभाव से सदाचारी और पवित्र था और विष्णु का भक्त था। उन्होंने ब्रह्मा की आज्ञा पर तुलसी से विवाह किया।

विवाह के बाद शंखचूड़ के नेतृत्व में दानवों ने अपने प्रमुख शत्रुओं, देवताओं के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। शंखचूड़ के गुणों की वजह से यह युद्ध दानव जीत गए। इसके बाद दानवों ने स्वर्ग से देवताओं को बाहर निकाल दिया। पराजय से हतोत्साहित देवता भगवान विष्णु के पास पहुंचे। उन्होंने बताया कि शंखचूड़ की मौत भगवान शिव के हाथों होनी तय है।

देवताओं के अनुरोध पर शिव शंखचूड़ के खिलाफ युद्ध छेड़ देते हैं। हालांकि कोई भी पक्ष एक दूसरे पर हावी नहीं हो पाता। ऐसे में ब्रह्मा जी शिव को बताते हैं कि शंखचूड़ को तब तक नहीं हराया जा सकता, जब तक कि वह अपना कवच पहने हुए है और उसकी पत्नी की पवित्रता भंग न हो जाए।

इसके बाद भगवान विष्णु एक बूढ़े ब्राह्मण का वेश धारण कर शंखचूड़ के पास पहुंचते हैं और भिक्षा कवच मांगते हैं। शंखचूड़ उन्हें अपना कवच दे देता है। इसके बाद वह शिव के साथ युद्ध में व्यस्त हो जाता है। इसी बीच विष्णु कवच पहन कर शंखचूड़ का रूप धारण करते हैं और तुलसी के साथ सहवास करते हैं। इस प्रकार तुलसी की पवित्रता भंग हो जाती है और शिव के त्रिशूल द्वारा शंखचूड़ को मार दिया जाता है।

शंखचूड़ की मृत्यु के क्षण तुलसी को संदेह हो गया कि जो पुरुष उस वक्त उनके साथ था वह शंखचूड़ नहीं था। जब उन्हें पता चला कि विष्णु ने उनके साथ छल किया है तो उन्होंने भगवान विष्णु को पत्थर बनने का शाप दिया। तुलसी का मानना था कि वह अपने भक्त शंखचूड़ को मारने के लिए और उसकी पवित्रता चुराने के दौरान पत्थर की तरह भावहीन थे।

इसके बाद विष्णु ने तुलसी को यह कहकर सांत्वना दी कि यह उन्हें पति के रूप में पाने के लिए की गई तपस्या का फल था। साथ ही वह अपनी देह त्यागने के बाद फिर से उनकी पत्नी बन जाएंगी। इसके बाद लक्ष्मी ने तुलसी के शरीर को त्याग दिया और एक नया रूप धारण किया जिसे तुलसी के नाम से जाना जाने लगा। तुलसी का परित्यक्त शरीर गंडकी नदी में बदल गया और उसके बालों से तुलसी की झाड़ी निकली।

तुलसी से शापित होने के कारण विष्णु ने गंडकी नदी के तट पर शालिग्राम के नाम से जाने जाने वाले एक बड़े चट्‌टानी पर्वत का रूप धारण कर लिया। वज्र के समान मजबूत दांतों वाले कीड़े वज्रकिता ने इन चट्‌टानों पर कई चिह्नों को उकेरा। वज्रकिता द्वारा उकेरे गए पत्थर जो उस पर्वत की सतह से गंडकी नदी में गिरते हैं, शालिग्राम शिला के रूप में जाने जाते हैं।

इतिहास: आदि शंकराचार्य के कई लेखों में इसका जिक्र

आदि शंकराचार्य के कई लेखों में भी शालिग्राम शिला का जिक्र है। वह विष्णु की पूजा में शालिग्राम शिला के उपयोग की सलाह देते हैं। तैत्तिरीय उपनिषद के श्लोक 1, 6, 1 और ब्रह्म सूत्र के 1, 3, 14 में भी शालिग्राम शिला का जिक्र है।

इन 4 बड़े मंदिरों की मूर्तियां भी शालिग्राम शिला से बनाई गई हैं

नेपाल से इस पत्थर को भिजवाने में नेपाली कांग्रेस नेता और पूर्व डिप्टी PM बिमलेंद्र निधि का अहम योगदान है। उन्होंने बताया कि काली गंडकी नदी में पाए जाने वाले ये पत्थर बहुत कीमती हैं। यह व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि ये पत्थर भगवान विष्णु के प्रतीक हैं। राम जन्म भूमि तीर्थ क्षेत्र के महासचिव चंपत राय ने कहा था कि यदि यह पत्थर मिल जाए तो अयोध्या में राम लला की मूर्ति इसी से बनाई जाएगी। इस अनुरोध के बाद मैं एक्टिव हुआ और पत्थर को अयोध्या पहुंचाने के लिए काम करने लगा।

नेपाल में पोखरा स्थित शालिग्रामी नदी (काली गंडकी ) से यह दोनों शिलाएं जियोलॉजिकल और आर्किलॉजिकल विशेषज्ञों की देखरेख में निकाली गई हैं। 26 जनवरी को इन्हें ट्रक में लोड किया गया। पूजा-अर्चना के बाद दोनों शिलाओं को ट्रक के जरिए सड़क मार्ग से अयोध्या भेजा गया।

राम मंदिर ट्रस्ट के ट्रस्टी कामेश्वर चौपाल ने बताया कि नदी के किनारे से इन विशाल शिलाखंड को निकालने से पहले धार्मिक अनुष्ठान किए गए। नदी से क्षमा याचना की गई। विशेष पूजा की गई। एक शिला का वजन 26 टन जबकि दूसरे का 14 टन है। यानी दोनों शिलाओं का वजन 40 टन है।