उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने 17 अप्रैल को एक बयान दिया- जज राष्ट्रपति को सलाह न दें। शुक्रवार को राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल ने उनके इस बयान पर आपत्ति जताई। उन्होंने कहा कि जब कार्यपालिका काम नहीं करेगी तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना ही पड़ेगा।
सिब्बल ने कहा, 'भारत में राष्ट्रपति नाममात्र का मुखिया है। राष्ट्रपति-राज्यपाल को सरकारों की सलाह पर काम करना होता है। मैं उपराष्ट्रपति की बात सुनकर हैरान हूं, दुखी भी हूं। उन्हें किसी पार्टी की तरफदारी करने वाली बात नहीं करनी चाहिए।'
सिब्बल ने 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का जिक्र करते हुए कहा- 'लोगों को याद होगा जब इंदिरा गांधी के चुनाव को लेकर फैसला आया था, तब केवल एक जज, जस्टिस कृष्ण अय्यर ने फैसला सुनाया था। उस वक्त इंदिरा को सांसदी गवानी पड़ी थी। तब धनखड़ जी को यह मंजूर था। लेकिन अब सरकार के खिलाफ दो जजों की बेंच के फैसले पर सवाल उठाए जा रहे हैं।'
सिब्बल बोले- देश को न्यायपालिका पर भरोसा
सिब्बल ने कहा- आज के समय में अगर किसी संस्था पर पूरे देश में भरोसा किया जाता है, तो वह न्यायपालिका है। सुप्रीम कोर्ट को अनुच्छेद 142 की ताकत संविधान से मिली है। ऐसे में अगर किसी को कोई परेशानी है तो वो अपने अधिकार का प्रयोग कर रिव्यू डाल सकते हैं। वे अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से सलाह भी मांग सकते हैं। अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को अधिकार देता है कि वह पूर्ण न्याय करने के लिए कोई भी आदेश, निर्देश या फैसला दे सकता है।
क्या था इंदिरा गांधी के खिलाफ 1975 में सुनाया गया फैसला
इंदिरा गांधी की संसद सदस्यता रद्द करने वाला फैसला 1975 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सुनाया था। 12 जून 1975 को जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा के प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार राज नारायण की याचिका पर सुनवाई की। जिसमें आरोप था कि इंदिरा ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग, अपने पद का गलत इस्तेमाल और चुनाव नियमों का उल्लंघन किया है।
सुनवाई के बाद का 1971 का चुनाव (रायबरेली सीट) अवैध घोषित कर दिया गया। उन्हें 6 साल तक चुनाव लड़ने से अयोग्य करार दिया गया। उनकी सांसदी रद्द कर दी गई। इस फैसले को इंदिरा ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। 24 जून 1975 को जस्टिस वी. आर. कृष्ण अय्यर ने अंतरिम राहत दी। साथ ही कहा कि इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री तो बनी रह सकती हैं, लेकिन संसद में वोटिंग अधिकार नहीं होगा।
इसके बाद 26 जून 1975 को देश में आपातकाल लगा दिया गया। संविधान में 42वां संशोधन किया गया। जिससे प्रधानमंत्री के चुनाव को न्यायिक समीक्षा से बाहर कर दिया गया। बाद में, सुप्रीम कोर्ट ने संशोधित संविधान के तहत इंदिरा गांधी के पक्ष में निर्णय दिया।
धनखड़ ने कहा था- अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं
दरअसल, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने 17 अप्रैल राज्यसभा इंटर्न के एक ग्रुप को संबोधित कर रहे थे। इस दौरान उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की उस सलाह पर आपत्ति जताई, जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों को बिलों को मंजूरी देने की समय सीमा तय की थी।
धनखड़ ने कहा था- "अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं। संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत कोर्ट को मिला विशेष अधिकार लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ 24x7 उपलब्ध न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है। जज सुपर पार्लियामेंट की तरह काम कर रहे हैं।"
विवाद सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से शुरू हुआ
सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को तमिलनाडु गवर्नर और राज्य सरकार के केस में गवर्नर के अधिकार की सीमा तय कर दी थी। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने कहा था, ‘राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है।’ सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के 10 जरूरी बिलों को राज्यपाल की ओर से रोके जाने को अवैध भी बताया था।
इसी फैसले के दौरान अदालत ने राज्यपालों की ओर से राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर भी स्थिति स्पष्ट की थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल की तरफ से भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा। यह ऑर्डर 11 अप्रैल को सार्वजनिक किया गया।
धनखड़ ने पूछा- जज के घर नोटों का बंडल मिला, FIR क्यों नहीं हुई
राज्यसभा के प्रशिक्षुओं को संबोधित करते हुए उपराष्ट्रपति ने 17 अप्रैल को कहा था कि हमारे पास ऐसे न्यायाधीश हैं जो कानून बनाएंगे, जो कार्यकारी कार्य करेंगे, जो 'सुपर संसद' के रूप में भी कार्य करेंगे। उनकी कोई जवाबदेही नहीं होगी, क्योंकि देश का कानून उन पर लागू नहीं होता है।'
'लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार सबसे अहम होती है और सभी संस्थाओं को अपनी-अपनी सीमाओं में रहकर काम करना चाहिए। कोई भी संस्था संविधान से ऊपर नहीं है।'
'जस्टिस वर्मा के घर अधजली नकदी मिलने के मामले में अब तक FIR क्यों नहीं हुई? क्या कुछ लोग कानून से ऊपर हैं। इस केस की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट ने तीन जजों की इन-हाउस कमेटी बनाई है। इसका कोई संवैधानिक आधार नहीं है। कमेटी सिर्फ सिफारिश दे सकती है, लेकिन कार्रवाई का अधिकार संसद के पास है।'
'अगर ये मामला किसी आम आदमी के घर होता, तो अब तक पुलिस और जांच एजेंसियां सक्रिय हो चुकी होतीं। न्यायपालिका हमेशा सम्मान की प्रतीक रही है, लेकिन इस मामले में देरी से लोग असमंजस में हैं।'