मैं कर्नाटक की हिजाब गर्ल हूं

पिछले साल कर्नाटक की हिजाब गर्ल खूब चर्चा में रही। दुनियाभर में सुर्खियां बटोरीं। जिस पर सुप्रीम कोर्ट में जिरह हुई। सोशल मीडिया पर मीम्स बने। कई लोगों ने तारीफ की, विदेश में पढ़ाई के ऑफर मिले, तो कुछ लोगों ने विरोध भी किया।

मैं वहीं हिजाब गर्ल मुस्कान खान हूं। जिसने अपने कॉलेज में कुछ हिंदू कट्टरवादी लड़कों के जय श्री राम का नारा लगाने पर अल्लाह हू अकबर के नारे लगाए थे। उसके बाद दुनियाभर में मेरी वाहवाही तो हुई, लेकिन जिस दौर से मैं और मेरा परिवार गुजरा, वो कभी भूल नहीं सकती।

मैं कर्नाटक के मंडेया की रहने वाली हूं। फिलहाल बीकॉम सेकेंड ईयर में हूं। मेरे तीन भाई-बहन हैं। अब्बू का अपना बिजनेस है। मां घर पर रहती हैं। अब्बू ने हमेशा हम भाई-बहनों को पढ़ाने पर जोर दिया। अब्बू का कहना था कि पढ़-लिखकर लड़कियां अपने पैरों पर खड़ी हो जाएं, तो फिर उन्हें किसी के आसरे नहीं रहना पड़ेगा।

10वीं के बाद मेरे साथ की ज्यादातर लड़कियों ने पढ़ाई छोड़ दी। उनकी शादी कर दी गई, लेकिन मैंने कॉलेज में दाखिला लिया, क्योंकि हमारे लिए पढ़ाई और परिवार ही सब कुछ था। राजनीति और किसी तरह की दुनियादारी से कोई वास्ता नहीं था।

उस दिन कॉलेज में जो हुआ, उस पर हर किसी ने मुझ पर कमेंट किए। रिश्तेदार अब्बू से कह रहे थे कि इसे कॉलेज क्यों भेजा, हंगामा हो गया न, इन सब चीजों की क्या जरूरत थी…? पर अब्बू ने मेरा साथ दिया। हिम्मत बनकर वे मेरे साथ खड़े रहे। कोई और होता तो शायद पढ़ाई छुड़वा देता, कॉलेज भेजना बंद करा देता, लेकिन अब्बू ने कहा कि तुमने जो किया ठीक किया।

दरअसल, सारा विवाद शुरू होता है हिजाब से। इस्लाम इल्म की इजाजत देता है। औरत को आजादी देता है। मुझे लगता है कि हिजाब डालना या नहीं डालना उसकी निजी चॉइस है। कोई किसी पर थोप नहीं सकता है।

हम कभी भी स्कूल या कॉलेज बुर्का पहन कर नहीं गए। घर से बुर्का पहनकर जाते थे और कॉलेज में हमें ड्रेस बदलने के लिए एक कमरा दिया गया था। वहां बुर्का निकाल कर हम सिर पर स्कार्फ बांध लेते थे। जो लड़कियां स्कार्फ नहीं बांधती थीं, वे कंधे पर दुपट्टा लेती थीं। कभी उस अनुशासन को नहीं तोड़ा।

बीते साल की बात है। बड़े भाई का रोड एक्सीडेंट हो गया था। उसे सिर में गहरी चोट आई थी। वह सीरियस था। कुछ कहा नहीं जा सकता था। हम सब डिप्रेशन में थे। दिन-रात रोते और दुआ करते बीतता था। घर में मातम जैसा माहौल था। इसी वजह से कई दिनों से मैं स्कूल भी नहीं जा पा रही थी।

एक दिन मेरी क्लासमेट का फोन आया कि इकोनॉमिक्स का असाइनमेंट जमा करने की कल आखिरी तारीख है। मेरा ध्यान तो भाई में ही था, कोई तैयारी की नहीं थी। मैंने फौरन अपनी स्कूटी निकाली और कॉलेज पहुंच गई।

मुझे पता नहीं था कि कॉलेज में क्या चल रहा है। मैंने गेट पर स्कूटी खड़ी की। उस वक्त कुछ लड़के मुझे घूर रहे थे और जय श्री राम के नारे लगा रहे थे। मुझे कुछ समझ नहीं आया। मैं अंदर गई तो वे कहने लगे कि बुर्का निकालो, बुर्का निकालो, निकालो इसे।

जबकि मैंने चूड़ीदार सूट के साथ हिजाब पहना था। वहां सिर्फ मैं और नारा लगा रहे लड़के ही मौजूद थे। बाकी कोई और नहीं था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है। फिर वे लोग एकदम मेरे सामने आ गए। नारेबाजी करने लगे। इस पर मैंने भी चिल्ला कर बोल दिया अल्लाह हू अकबर..अल्लाह हू अकबर...अल्लाह हू अकबर।

इससे वे लोग और गुस्से में आ गए, लेकिन मैं डरी नहीं। सच बताऊं, तो मुझे नहीं पता कि उस वक्त मुझे कहां से हिम्मत आई थी।

मैंने यह सब पहली बार देखा था। ऐसी भीड़ से पहली बार सामना हुआ था। मुझे अंदर से इतना गुस्सा आ रहा था कि मैं बता नहीं सकती। मेरा दिल जार-जार रो रहा था कि मेरा भाई बिस्तर पर है, उसकी जिंदगी खतरे में है और ये लोग मेरे साथ ऐसा व्यवहार कर रहे हैं। मुझे परेशान कर रहे हैं। इसी बीच एक टीचर आए और मुझे कॉलेज के अंदर ले गए।

मैं कॉलेज में ही थी। इसी बीच मेरा वीडियो वायरल हो गया। एक सहेली ने बताया कि मुस्कान तेरा वीडियो यूट्यूब पर आ रहा है, मैंने ध्यान नहीं दिया। इतने में पता लगा कि कॉलेज में धारा 144 लग गई है। एक दोस्त ने मैसेज किया कि मुस्कान तुम टीवी पर आ रही हो, मैंने तब भी ज्यादा ध्यान नहीं दिया।

मुझे प्रिंसिपल ने बुलाया और पूछताछ की। मैंने उन्हें सब कुछ बता दिया। थोड़ी देर बाद पुलिस भी आ गई। मुझे देखकर पूछने लगे कि तुम्हीं हो न वो? फिर मैंने अब्बू को फोन लगाया। उन्हें बताया कि मेरे साथ ऐसा-ऐसा हुआ है। अब्बू ने कहा कि कोई बात नहीं, तुम घर आ जाओ।

मैं घर पहुंची तो मेरा ही इंतजार हो रहा था। अब्बू के दोस्त भी घर पर ही थे। वे कह रहे थे कि देखो तुम्हारी बेटी ने क्या किया है। कैसे मीडिया में आ रही है। मैंने अब्बू को सारी बात बताई। मां लगातार रो रही थीं। वे कह रही थीं कि तुमने ऐसा क्यों किया, तुम्हें कुछ हो जाता तो…।

मैंने टीवी ऑन किया। मेरा ही वीडियो टीवी पर चल रहा था। इसी बीच मीडिया वाले भी घर आ गए। मीडिया वालों की कतार लग गई। सब आवाज दे रहे थे कि मुस्कान को बाहर भेजो, मुस्कान को बाहर भेजो। मुस्कान बताओ आखिर हुआ क्या था, घटना की जानकारी दो।

इस पर पहले तो अब्बू ने मुझे मना कर दिया कि कुछ कहना नहीं है, कहीं जाना नहीं है। इधर मीडिया की भीड़ बढ़ती जा रही थी। वे वापस जाने को तैयार नहीं थे। फिर अब्बू के कहने पर मैं बाहर आई और मीडिया को सारी बात बताई।

इसके बाद तो हर दिन मीडिया वाले घर आने लगे। विदेशी मीडिया वाले भी बहुत आए। हम लोग पागल हो गए थे, परेशान हो गए थे रोज-रोज एक ही सवाल का जवाब देते-देते।

खैर उस घटना के बाद अल्लाह ने दुनिया में इतनी इज्जत दी, इतनी शोहरत दी कि मेरे पास शब्द नहीं हैं। हर जगह से मुझे दुआएं और तारीफें मिल रही थीं। कॉलेज में जो मेरी नॉन मुस्लिम दोस्त थीं, वे भी फोन करके बोल रही थीं कि मुस्कान तुमने अच्छा किया है।

हालांकि ये एक पक्ष था, जो दुनिया को दिख रहा था। एक दूसरा पक्ष भी था जिससे सिर्फ मैं और मेरा परिवार ही गुजर रहा था। मेरे खिलाफ समाज का एक तबका खड़ा हो गया था। हमारे अपने ही हमें कोस रहे थे। पापा को ताने मार रहे थे। कई कट्टरवादी लोग धमकी भी दे रहे थे।

घर में सभी लोग डर गए थे। कई महीने हम सोए नहीं, ठीक से खाना नहीं खाया, अम्मी हमेशा कहती थी कि तूने ऐसा क्यों किया। कोई तुम्हारे साथ कुछ गलत कर देगा तो क्या होगा, हम कहां जाएंगे..वगैरह, वगैरह। खैर इस घटना के बाद मैंने रेगुलर कॉलेज जाना छोड़ दिया था। पढ़ाई डिस्टर्ब हो गई। अब मैं ओपन स्टडी कर रही हूं।

मुझे कई विदेशी यूनिवर्सिटीज से पढ़ाई के लिए ऑफर आए, लेकिन मैं परिवार को छोड़कर नहीं जा सकती। मुझे भारत पसंद है, अपने देश से प्यार है और मुझे यहीं रहना है। यहां जिन कॉलेजों से मुझे पढ़ने के लिए ऑफर आए, वहां मेरे सब्जेक्ट नहीं थे। इसलिए मैंने घर पर ही रहकर ओपन स्टडी करना शुरू किया।

अब्बू मुझे शेरनी बुलाते थे और आज भी कहते हैं कि तुम सच में शेरनी हो। इतनी हिम्मत उन लड़कियों में ही होती है, जिनके पापा उनका साथ देते हैं। मैं अगर पढ़ी-लिखी नहीं होती तो रोकर या डरकर भाग जाती, लेकिन मैं जानती हूं कि मेरे अधिकार क्या हैं।

मुझे लगता है कि मैं उस कॉलेज की स्टूडेंट थी और लड़के भी उसी कॉलेज के स्टूडेंट थे। अगर उन्हें जय श्री राम कहने का हक था तो मुझे भी अल्लाह हू अकबर कहने का हक था। जैसा उनका हक, वैसा मेरा हक।

आज सब ठीक हो चुका है। मैंने उन लड़कों को भी माफ कर दिया है। उनसे कोई रंजिश नहीं है। एक और बात, यहां की पुलिस और सरकार ने हमारा साथ दिया। आज भी हम कहीं जाते हैं तो उन्हें बताकर जाते हैं। वे लोग हमारी हिफाजत करते हैं।

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3 हजार करोड़ की ठगी करने वाला बना 'गुरू'

देश में 3 हजार करोड़ का फ्रॉड करने वाला 7वीं फेल फ्यूचर मेकर कंपनी का चेयरमैन कम मैनेजिंग डायरेक्टर (CMD) राधेश्याम अब 'गुरू' बन गया है। राधेश्याम 4 साल 3 महीने जेल में रहा। जनवरी 2022 में वह जेल से बाहर आया। इसके बाद वह अपने हिसार स्थित घर जाने के बजाय गायब हो गया। अब अचानक वह प्रवचन के नाम पर ज्ञान बांटते हुए नजर आने लगा है।

राधेश्याम खुद को भगवान श्रीकृष्ण का भक्त बता रहा है। उसने परमधाम नाम से अपनी संस्था बनाई है। इसी नाम से उसने अपना सोशल मीडिया अकाउंट बनाया हुआ है। इस पर अपने प्रवचनों के 12 वीडियो अपलोड किए है। इनमें वह आजकल के दूसरे बाबाओं को कोस रहा है।

राधेश्याम कहता है कि बाबा अध्यात्म का ज्ञान नहीं दे रहे बल्कि व्यापार कर रहे हैं। यह सोचने वाली बात है। लोगों से करोड़ों ठगने वाला राधेश्याम कह रहा है कि परमात्मा ने जितना दिया है, उसी में आनंद लेना चाहिए।

जानिए कौन है राधेश्याम और कैसे उसने 3 हजार करोड़ का फ्रॉड किया..

प्रॉपर्टी के काम में पैसा कमाया: राधेश्याम हिसार के सीसवाल गांव का रहने वाला है। वह आदमपुर में प्रॉपर्टी का काम करता था। छोटे भाई के साथ मिलकर उसने मोटा पैसा कमाया। हालांकि जब प्रॉपर्टी का काम मंदा हुआ तो शातिर राधेश्याम ने फ्यूचर मेकर कंपनी खोली।

नेटवर्किंग चेन वाली कंपनी बनाई: राधेश्याम ने फ्यूचर मेकर कंपनी की स्कीम लॉन्च की। इसमें एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के साथ जुड़कर पूरी चैन बनानी होती थी। जॉइनिंग के लिए साढ़े 7 हजार रुपए देने पड़ते थे। कंपनी जॉइनिंग के बाद ढ़ाई हजार रुपए वापस लौटाने का लालच देती और बाकी बचे हुए पैसों के बराबर की राशि का इस्तेमाल कपड़े और दवाइयां खरीदने का लालच दिया जाता।

इसके साथ ही स्कीम के अनुसार, अगर एक व्यक्ति 7200 रुपए कंपनी में इन्वेस्ट करता है तो उसे दो साल में 60 हजार रुपए वापस मिलने का लालच दिया जाता। नए मेंबर्स जोड़ने पर पुराने मेंबर को कमीशन भी दिया जाता था।

सेमिनार के जरिए जोड़े लोग : राधेश्याम लोगों की जोड़ने की कला में माहिर था। वह सेमिनार के जरिए लोगों को जोड़ता। जहां उसकी बातों व ठाठ-बाठ देखकर युवा उसके जाल में फंसते चले गए। आलम यह था कि राधेश्याम ने एक साल में कंपनी में 1 करोड़ लोगों को जोड़ने का दावा किया। उसकी पर्सनल सिक्योरिटी थी और वह जगुआर से चलता था। देश के बड़े शहरों में उसके सेमिनार होते थे।

ऐसे फूटा राधेश्याम का भांडा
तेलंगाना की साइबराबाद पुलिस ने हरियाणा पुलिस के साथ मिलकर हिसार में चल रही मल्टी लेवल मार्केटिंग कंपनी का पर्दाफाश किया। यह कंपनी पिछले 4-5 सालों से लोगों से करीब 1200 करोड़ रुपए की ठगी कर चुकी है। तेलंगाना पुलिस ने हरियाणा की एसटीएफ के साथ मिलकर आरोपियों को दबोचा।

इसी मामले के मास्टरमाइंड के तौर पर राधेश्याम और सुरेंद्र सिंह के तौर पर हुई। राधेश्याम फ्यूचर मेकर लाइफ केयर ग्लोबल मार्केटिंग का चेयरमैन और सुरेंद्र सिंह डायरेक्टर था। पुलिस ने कंपनी के 200 करोड़ रुपयों को सीज किया है।

9 राज्यों में 50 एफआईआर
2018 में राधेश्याम की फ्यूचर मेकर कंपनी में निवेश के नाम पर 3 हजार करोड़ का फ्रॉड उजागर हुआ। इस ठगी के केस में हरियाणा, गुजरात, मध्यप्रदेश, तेलंगाना, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में करीब 50 केस दर्ज हुए। इन मामलों में पुलिस 21 आरोपियों को पकड़ चुकी है। एनफोर्समेंट डायरेक्टोरेट ने करीब 300 करोड़ की प्रॉपर्टी अटैच की है।

राधेश्याम ने बताई 'गुरू' बनने की कहानी
राधेश्याम कह रहा है कि उसने चार साल में गहरा चिंतन किया। जिसमें उसने ज्ञान अर्जित किया। उसने कहा कि भगवान ने रास्ता दिखाया कि आने वाली पीढ़ियों को ज्ञान दें। चार साल में मैने भगवत गीता पर काम किया है। 8 से 10 ग्रंथ लिखे हैं और जल्द ही मेडिटेशन कैंप शुरू करने जा रहा हूं।

लोग बोले- हमारा पैसा खाकर गुरू बन गया
राधेश्याम के ज्ञान की बातों पर लोग खूब कमेंट कर रहे हैं कि कई गरीब लोगों की बद्दुआ है, अब ज्ञान देने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। ऊपरवाला देख रहा है। इसी जन्म में भुगतना पड़ेगा तुझे। एक यूजर ईश्वर मेहता ने कहा कि लोगों का पैसा खा कर गुरु बनना ठीक नहीं है। पहले गरीब लोगों का पैसा लोटा दो।

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संपूर्ण जीवन और वैदिक ज्ञान का सार

नई दिल्ली: श्रीमद्भगवद्गीता को गीतोपनिषद भी कहा जाता है। ये हमारे संपूर्ण जीवन और वैदिक ज्ञान का सार है। आप सभी जानते है इस महाग्रंथ के वक्ता स्वयं विष्णु अवतार श्री कृष्ण जी है। इस ग्रंथ के सभी पृष्ठ ज्ञान के सार से भरे हुए है। इस महाग्रंथ में भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहते है की मैं तुम्हे इस परम रहस्य को इसीलिए प्रदान कर रहा हु क्योंकि तुम मेरे मित्र और भक्त हो। इससे ये ज्ञात होता है की ये महाग्रंथ विशेष रूप से भगवदभक्त भक्तो के निमित्त है। अध्यात्मवादियो की तीन श्रेणियों है। 

1. ज्ञानी2. योगी3. भक्त इस महाग्रंथ में भगवान कृष्ण अर्जुन कहते है की वे उनको इस परंपरा का सबसे पहला पात्र बना रहे है। क्योंकि उस समय प्राचीन परंपरा खंडित हो गई थी। वे चाहते थे की द्रोणशिष्य अर्जुन इस महाग्रंथ का प्रमाणिक विद्वान बने। आप सभी जानते भी है इस महाग्रंथ का उपदेश केवल विशेष रूप से अर्जुन के लिए ही दिया गया था। क्योंकि आप सभी जानते भी है अर्जुन कृष्ण भगवान का भक्तप्रत्यक्ष शिष्यतथा घनिष्ठ मित्र था। जिस व्यक्ति में अर्जुन जैसे गुण पाए जाते है वो इस महाग्रंथ को सबसे अच्छी तरह समझ सकता है। मेरे इस वाक्य का साधारण सा अर्थ है इस महाग्रंथ को पूर्ण रूप से समझने के लिए भक्त को भगवान से सच्ची भावना सच्चे मन और सच्चे भाव से समर्पित होना चाहिए। जैसे ही कोई सच्ची भावना के साथ भगवान का भक्त बन जाता है उसका सीधा संबंध भगवान से बन जाता है। अर्थात मुंह में राम बगल में छुरी वाली भावना नहीं होनी चाहिए। आज मैं  भगवान और भक्त के मध्य होने वाले कुछ संबंध आपके सामने रख रहा हूंआशा करता हूँ आपको अच्छे से समझ में आएगा।

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ओम और अल्लाह एक; विरोध में संतों ने जमियत का मंच छोड़ा

नई दिल्ली: जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अधिवेशन के आखिरी दिन मौलाना अरशद मदनी के बयान पर जबर्दस्त बवाल हो गया। मदनी RSS चीफ के उस बयान का जवाब दे रहे थे, जिसमें उन्होंने कहा था- हिंदुओं और मुसलमानों के पूर्वज एक जैसे हैं। मदनी ने कहा- तुम्हारे पूर्वज हिंदू नहीं, मनु थे यानी आदम। उनके इस बयान के विरोध में अधिवेशन में पहुंचे अलग-अलग धर्मगुरु मंच छोड़कर चले गए।

दिल्ली के रामलीला मैदान में जमीयत उलेमा-ए-हिंद के 34वें अधिवेशन के आखिरी दिन मौलाना मदनी ने कहा- मैंने पूछा कि जब कोई नहीं था। न श्रीराम थे, न ब्रह्मा थे और न शिव थे; जब कोई नहीं था तो मनु पूजते किसको थे। कोई कहता है कि शिव को पूजते थे। बहुत कम लोग ये बताते हैं कि मनु ओम को पूजते थे। ओम कौन है? बहुत से लोगों ने कहा कि उसका कोई रूप-रंग नहीं है। वो दुनिया में हर जगह हैं। अरे बाबा इन्हीं को तो हम अल्लाह कहते हैं। इन्हें आप ईश्वर कहते हैं।

जैन गुरु ने विरोध किया, कई संत उठकर चले गए
मौलाना मदनी के बयान का जैन मुुनि लोकेश ने विरोध किया। उन्होंने कहा कि यह अधिवेशन लोगों को जोड़ने के लिए हो रहा है। ऐसे में इस तरह का बयान कहां तक जायज है। मुनि लोकेश ने मंच पर यह बात कही। इसके बाद वे कार्यक्रम से उठकर चले गए। उनके बाद दूसरे धर्मों के संतों ने भी कार्यक्रम छोड़ दिया। 

अरशद मदनी बोले- हम जिसे आदम कहते हैं, वही मनु
मौलाना मदनी ने कहा, 'हजरत आदम जो नबी थे, सबसे पहले उन्हें भारत की धरती के भीतर उतारा। अगर चाहता तो आदम को अफ्रीका, अरब, रूस में उतार देता। वो भी जानते हैं, हम भी जानते हैं कि आदम को दुनिया में उतारने के लिए भारत की धरती को चुना गया।'

मदनी बोले- मैंने बड़े-बड़े धर्मगुरुओं से पूछा कि अल्लाह ने जिस पहले आदमी को धरती पर उतारा वो किसकी पूजा करता था। दुनिया के अंदर अकेला आदम था, उसे कहते क्या हो। लोग अलग-अलग बातें कहते थे। धर्मगुरुओं ने कहा कि हम उसे मनु कहते हैं, हम आदम कहते हैं, अंग्रेजी बोलने वाले एडम कहते हैं। हम आदम की औलाद को आदमी और ये मनु की औलाद को मनुष्य कहते हैं।

मदनी बोले- देश में शिक्षा का भगवाकरण मंजूर नहीं
रिपोर्ट्स के मुताबिक, मदनी ने कार्यक्रम में कहा कि पैगंबर का अपमान मुस्लिम मंजूर नहीं करेंगे। मोहम्मद साहब के खिलाफ बयान नहीं दिए जाने चाहिए। भारत में अभी शिक्षा का भगवाकरण किया जा रहा है और ये उचित नहीं है। दूसरे धर्मों की किताबें थोपी नहीं जानी चाहिए। ये संविधान के खिलाफ है।

जमीयत चीफ महमूद मदनी के चाचा हैं मौलाना अरशद
जमीयत उलमा-ए-हिंद के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना असद मदनी थे। उनका 2008 में इंतकाल हो गया था। इसके बाद जमीयत की अगुआई को लेकर जमीयत उलेमा-ए-हिंद के मौजूदा चीफ महमूद मदनी का अपने चाचा मौलाना अरशद मदनी से विवाद हो गया। लंबे झगड़े के बाद जमीयत दो हिस्सों में बंट गई। एक गुट की अगुआई महमूद मदनी और दूसरे गुट की अगुआई अरशद मदनी करने लगे। दोनों ने अपनी-अपनी जमीयत उलमा-ए-हिंद का राष्ट्रीय अध्यक्ष पद ले लिया था। हालांकि पिछले साल दोनों में सुलह हो गई थी।

देश के बड़े इस्लामिक संगठनों में शामिल है जमीयत
जमीयत उलेमा-ए-हिंद भारत के अग्रणी इस्लामिक संगठनों में से एक है। यह देवबंदी विचारधारा से प्रभावित है। इसकी स्थापना साल 1919 में हुई थी। कहा जाता है कि देशभर में जमीयत के फॉलोअर्स करोड़ों में हैं। जमीयत पदाधिकारियों के अनुसार, इस संगठन का इतिहास देश की आजादी में लड़ाई से भी जुड़ा रहा है। 

जमीयत उलेमा-ए-हिंद के चीफ महमूद मदनी ने कहा है कि भाजपा और RSS से हमारा कोई धार्मिक मतभेद नहीं है, बल्कि वैचारिक मतभेद है। दिल्ली के रामलीला मैदान में शनिवार को जमीयत के 34वें अधिवेशन में उन्होंने कहा- भारत जितना मोदी और भागवत का है, उतना ही मदनी का भी है। जमीयत चीफ ने कहा- हमें सनातन धर्म से कोई शिकायत नहीं है, आपको भी इस्लाम से कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए। 

असम में बाल विवाह के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान को जमीयत-ए-उलमा-ए-हिंद का समर्थन मिला है। जमीयत-ए-उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी ने कहा कि ये बिल्कुल सही है। लेकिन ऐसे लग रहा है कि ये कार्रवाई किसी धर्म विशेष के खिलाफ की जा रही है। इसे निष्पक्ष होना चाहिए।उन्होंने कहा कि अगर समान नागरिक संहिता पर आम सहमति बनाने के लिए कुछ संजीदा कोशिशें की जा रही हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं है। सरकार को अपना एक्शन निष्पक्ष रखना चाहिए।

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6 करोड़ साल पहले पेड़-पौधों के दबने से बने पत्थर

लखनऊ: नेपाल के जनकपुर से 40 टन वजनी शालिग्राम की 2 शिलाएं 7 दिन के सफर के बाद बुधवार रात अयोध्या पहुंचीं। इन्हीं शिलाओं से भगवान राम और माता सीता की भव्य मूर्तियां बनाई जाएंगी। माना जा रहा है कि ये मूर्तियां अयोध्या में बने भव्य राम मंदिर के गर्भगृह में स्थापित की जाएंगी।

वैज्ञानिक मान्यता : 6 करोड़ साल पहले बने जीवाश्म पत्थर

साइंस की भाषा में शालिग्राम डेवोनियन-क्रिटेशियस पीरियड का एक काले रंग का एमोनोइड शेल फॉसिल्स है। डेवोनियन-क्रिटेशियस पीरियड 40 से 6.6 करोड़ साल पहले था। ये वो पीरियड था जब धरती के 85% हिस्से पर समुद्र होता था।

जीवाश्म शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है, ‘जीव’ तथा ‘अश्म’। अश्म का अर्थ होता है-पत्थर। इस प्रकार जीवाश्म का अर्थ हुआ वह जीव जो पत्थर बन गया। अंग्रेजी में जीवाश्म को फॉसिल कहा जाता है।

जीवाश्म करोड़ों सालों तक पृथ्वी की सतह में गहरे दबे हुए जंतुओं एवं वनस्पति अवशेषों से बने हैं। जीव अवशेष धीरे-धीरे तलछट के नीचे दबकर एकत्रित हो जाते हैं जिससे उन्हें ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं हो पाती। तलछट के आवरण के कारण न तो जीव अवशेषों का ऑक्सीकरण हो पाता है और न ही विघटन। इसी के चलते ये जीवाश्म मजबूत और कठोर चट्‌टान में बदल जाते हैं।

प्राचीनकाल की मूर्तिकला में इस पत्थर का इस्तेमाल किया जाता रहा है। शालिग्राम पत्थर बेहद मजबूत होते हैं। इसलिए शिल्पकार बारीक से बारीक आकृति उकेर लेते हैं। अयोध्या में भगवान राम की सांवली प्रतिमा इसी तरह की शिला पर बनी है।

जीवाश्मों को हिंदू पवित्र मानते हैं क्योंकि माधवाचार्य ने उन्हें अष्टमूर्ति से प्राप्त किया था। माधवाचार्य को व्यासदेव के नाम से भी जाना जाता है। यह विष्णु के प्रतीक यानी शंख जैसा होता है। शालिग्राम अलग-अलग रूपों में मिलते हैं। कुछ अंडाकार होते हैं तो कुछ में एक छेद होता है। इस पत्थर में शंख, चक्र, गदा या पद्म की तरह निशान बने होते हैं।

धार्मिक मान्यता: भगवान विष्णु ने तुलसी के पति को छल से मारा, शाप के चलते पत्थर बने

देवी भागवत पुराण के अध्याय 24, शिव पुराण के अध्याय 41 के अलावा ब्रह्मवैवर्त पुराण में शालिग्राम शिला की उत्पत्ति के बारे में विस्तार से बताया गया है। वृषध्वज नाम का एक राजा था। वह शिव के अलावा किसी और देवता की पूजा नहीं करता था। इसी के चलते सूर्य ने उसे शाप दिया कि वह और उसकी पीढ़ियां गरीब ही रहेंगी।

अपनी खोई हुई समृद्धि को पाने के लिए वृषध्वज के पोते धर्मध्वज और कुशध्वज देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करते हैं। देवी लक्ष्मी तपस्या से प्रसन्न होती हैं और उनकी समृद्धि लौटा देती हैं। साथ ही दोनों की पुत्रियों के रूप में जन्म लेने का वरदान देती हैं।

इसके बाद देवी लक्ष्मी कुशध्वज की बेटी वेदवती और धर्मध्वज की बेटी तुलसी के रूप में अवतार लेती हैं। तुलसी अपने पति के रूप में भगवान विष्णु को पाने के लिए बद्रिकाश्रम में तपस्या करने चली जाती हैं। ब्रह्मा उन्हें बताते हैं कि इस जीवन में पति के रूप में विष्णु उन्हें नहीं मिलेंगे और उन्हें शंखचूड़ नामक दानव से विवाह करना होगा।

अपने पिछले जन्म में शंखचूड़ ही सुदामा थे। दरअसल, राधा ने सुदामा को शाप दिया था कि वह अगले जन्म में दानव बनेंगे। इसी वजह से शंखचूड़ स्वभाव से सदाचारी और पवित्र था और विष्णु का भक्त था। उन्होंने ब्रह्मा की आज्ञा पर तुलसी से विवाह किया।

विवाह के बाद शंखचूड़ के नेतृत्व में दानवों ने अपने प्रमुख शत्रुओं, देवताओं के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। शंखचूड़ के गुणों की वजह से यह युद्ध दानव जीत गए। इसके बाद दानवों ने स्वर्ग से देवताओं को बाहर निकाल दिया। पराजय से हतोत्साहित देवता भगवान विष्णु के पास पहुंचे। उन्होंने बताया कि शंखचूड़ की मौत भगवान शिव के हाथों होनी तय है।

देवताओं के अनुरोध पर शिव शंखचूड़ के खिलाफ युद्ध छेड़ देते हैं। हालांकि कोई भी पक्ष एक दूसरे पर हावी नहीं हो पाता। ऐसे में ब्रह्मा जी शिव को बताते हैं कि शंखचूड़ को तब तक नहीं हराया जा सकता, जब तक कि वह अपना कवच पहने हुए है और उसकी पत्नी की पवित्रता भंग न हो जाए।

इसके बाद भगवान विष्णु एक बूढ़े ब्राह्मण का वेश धारण कर शंखचूड़ के पास पहुंचते हैं और भिक्षा कवच मांगते हैं। शंखचूड़ उन्हें अपना कवच दे देता है। इसके बाद वह शिव के साथ युद्ध में व्यस्त हो जाता है। इसी बीच विष्णु कवच पहन कर शंखचूड़ का रूप धारण करते हैं और तुलसी के साथ सहवास करते हैं। इस प्रकार तुलसी की पवित्रता भंग हो जाती है और शिव के त्रिशूल द्वारा शंखचूड़ को मार दिया जाता है।

शंखचूड़ की मृत्यु के क्षण तुलसी को संदेह हो गया कि जो पुरुष उस वक्त उनके साथ था वह शंखचूड़ नहीं था। जब उन्हें पता चला कि विष्णु ने उनके साथ छल किया है तो उन्होंने भगवान विष्णु को पत्थर बनने का शाप दिया। तुलसी का मानना था कि वह अपने भक्त शंखचूड़ को मारने के लिए और उसकी पवित्रता चुराने के दौरान पत्थर की तरह भावहीन थे।

इसके बाद विष्णु ने तुलसी को यह कहकर सांत्वना दी कि यह उन्हें पति के रूप में पाने के लिए की गई तपस्या का फल था। साथ ही वह अपनी देह त्यागने के बाद फिर से उनकी पत्नी बन जाएंगी। इसके बाद लक्ष्मी ने तुलसी के शरीर को त्याग दिया और एक नया रूप धारण किया जिसे तुलसी के नाम से जाना जाने लगा। तुलसी का परित्यक्त शरीर गंडकी नदी में बदल गया और उसके बालों से तुलसी की झाड़ी निकली।

तुलसी से शापित होने के कारण विष्णु ने गंडकी नदी के तट पर शालिग्राम के नाम से जाने जाने वाले एक बड़े चट्‌टानी पर्वत का रूप धारण कर लिया। वज्र के समान मजबूत दांतों वाले कीड़े वज्रकिता ने इन चट्‌टानों पर कई चिह्नों को उकेरा। वज्रकिता द्वारा उकेरे गए पत्थर जो उस पर्वत की सतह से गंडकी नदी में गिरते हैं, शालिग्राम शिला के रूप में जाने जाते हैं।

इतिहास: आदि शंकराचार्य के कई लेखों में इसका जिक्र

आदि शंकराचार्य के कई लेखों में भी शालिग्राम शिला का जिक्र है। वह विष्णु की पूजा में शालिग्राम शिला के उपयोग की सलाह देते हैं। तैत्तिरीय उपनिषद के श्लोक 1, 6, 1 और ब्रह्म सूत्र के 1, 3, 14 में भी शालिग्राम शिला का जिक्र है।

इन 4 बड़े मंदिरों की मूर्तियां भी शालिग्राम शिला से बनाई गई हैं

नेपाल से इस पत्थर को भिजवाने में नेपाली कांग्रेस नेता और पूर्व डिप्टी PM बिमलेंद्र निधि का अहम योगदान है। उन्होंने बताया कि काली गंडकी नदी में पाए जाने वाले ये पत्थर बहुत कीमती हैं। यह व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि ये पत्थर भगवान विष्णु के प्रतीक हैं। राम जन्म भूमि तीर्थ क्षेत्र के महासचिव चंपत राय ने कहा था कि यदि यह पत्थर मिल जाए तो अयोध्या में राम लला की मूर्ति इसी से बनाई जाएगी। इस अनुरोध के बाद मैं एक्टिव हुआ और पत्थर को अयोध्या पहुंचाने के लिए काम करने लगा।

नेपाल में पोखरा स्थित शालिग्रामी नदी (काली गंडकी ) से यह दोनों शिलाएं जियोलॉजिकल और आर्किलॉजिकल विशेषज्ञों की देखरेख में निकाली गई हैं। 26 जनवरी को इन्हें ट्रक में लोड किया गया। पूजा-अर्चना के बाद दोनों शिलाओं को ट्रक के जरिए सड़क मार्ग से अयोध्या भेजा गया।

राम मंदिर ट्रस्ट के ट्रस्टी कामेश्वर चौपाल ने बताया कि नदी के किनारे से इन विशाल शिलाखंड को निकालने से पहले धार्मिक अनुष्ठान किए गए। नदी से क्षमा याचना की गई। विशेष पूजा की गई। एक शिला का वजन 26 टन जबकि दूसरे का 14 टन है। यानी दोनों शिलाओं का वजन 40 टन है।

 

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‘हिंदू-मुस्लिम’ करना घातक होगा

हिंदू-मुस्लिम रिश्तों को लेकर सदा से ही भारत में आपसी भाईचारे और साझा विरासत का वातावरण रहा है। हां, लगभग 5-10 प्रतिशत तो हमेशा ही फसाद पर उतारू रहते हैं दोनों ओर, मगर आम तौर से गंगा-जमुनी तहज़ीब का ही अनुसरण करते चले आ रहे हैं, भारत के सभी निवासी, चाहे वे किसी भी धर्म के अनुयायी हों। कर्नाटक में जिस प्रकार से मंदिरों के निकट मुस्लिम दुकानदारों से सामान लेने के विरुद्ध वहां बैनर या पोस्टर लगाए गए हैं, उससे आपसी समभाव व सद्भाव पर कुप्रभाव पड़ सकता है। इस प्रकार की विघटनकारी बातों से बचने की आवश्यकता है। दक्षिण भारत के शिमोगा से एक विचलित करने वाली खबर आई है कि वहां के मंदिरों के कंप्लेक्स के बाहर कोई भी मुस्लिम अपनी किसी भी प्रकार की दुकान नहीं चलाएगा। इसका कारण बताया गया कि ये लोग बीफ का सेवन करते हैं। यह ठीक है कि बीफ के खाने से परहेज़ करना चाहिए मुस्लिमों को, क्योंकि गाय को हिंदू धर्म में माता के स्थान पर मान-सम्मान दिया गया है। जिस प्रकार से उडुपि, दक्षिण कन्नड़, टुमकुर, हासन, चिकमंग्लूर, दुर्गापुरामेशवरी आदि के मंदिरों के कैंपस में मुस्लिम पूजा सामग्री से लेकर अन्य नाना प्रकार का सामान बेचते थे, उससे न केवल इन मुस्लिम दुकानदारों के घर चलते थे बल्कि इस से अंतरधर्म सद्भावना व समभावना का सुखद प्रचार भी होता था। इन स्थानों पर बड़े-बड़े पोस्टर व बैनर लगा दिए गए हैं कि मुस्लिम दुकानदार से सौदा नहीं लिया जाए। इस प्रकार के बैनर न केवल अनैतिक व गैर कानूनी हैं बल्कि मानवता विरोधी भी हैं।

 

न जाने कब भारत में यह दूषित हिंदू-मुस्लिम मानसिकता की समाप्ति होगी। यदि भारत को विश्व गुरु और 5 ट्रिलियन अर्थ व्यवस्था बनना है तो हिंदू-मुस्लिम के मकडज़ाल से बाहर निकलना होगा और केवल और केवल भारत कार्ड खेलना होगा, न कि हिंदू-मुस्लिम ‘खेला होबे’! हां, एक सोचने वाली बात यह है कि आखिर यह कांड शिमोगा से ही क्यों शुरू हुआ! इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि इसी स्थान से हिजाब का अज़ाब शुरू हुआ था और 96 में से 6 छात्राओं ने बावजूद स्कूल से यह उसूल जारी होने पर कि हिजाब अन्यथा कोई और कोई धार्मिक पहनावा पहनने की अनुमति नहीं, फिर भी कक्षा की इन 6 छात्राओं ने इस बात की जि़द पकड़ ली कि वे हिजाब पहनकर ही कक्षा में आएंगी। वास्तव में उनको चंद कट्टरवादियों ने धमका दिया कि हिजाब नहीं तो किताब नहीं! एक समाज में जब एक तबक़ा जि़द पकड़ उद्दंड हो जाता है तो दूसरा तबका भी उसी रास्ते पर चल पड़ता है। 

 

इसी हिंदू-मुस्लिम पचड़े को लेकर लेखक की एक बार सरसंघचालक मोहन भागवत जी से बात हो रही थी तो उनका मत था कि अधिकतर मुस्लिम संस्कारी, राष्ट्रवादी व शांतिमय हैं, मगर कुछ स्वयंभू मुस्लिम नेता उन पर ढक्कन कस देते हैं जिसके कारण शाहीन बाग़ और हिजाब जैसी समस्याएं सामने आती रहती हैं और एक सुदृढ़ समाज को बांटने के प्रयास होते हैं। भागवत के विचार में मुस्लिम और हिंदू अलग हैं ही नहीं, भले ही उनका धर्म भिन्न हो, मगर डीएनए तो एक ही है। इसमें उन्होंने यह भी जोड़ा कि मुस्लिमों के बिना भारत की कल्पना नहीं की जा सकती क्योंकि भारत को प्रगति के इस मुकाम तक लाने में मुसलमानों का बड़ा योगदान है। साथ ही साथ उन्होंने यह भी कहा कि मुस्लिम उनकी संतान की माफिक हैं और उनके साथ वे बराबरी का सुलूक करना चाहते हैं। इस तरह दुकानदारी व दुकानदारों के मामले में हिंदू-मुस्लिम करना भारत के लिए घातक होगा। इससे बचा जाना चाहिए।

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लंका दहन के समय एक घर छोड़ दिया था हनुमानजी ने

मेघनाथ ने श्रीहनुमानजी को रावण के सामने लाकर खड़ा कर दिया। हनुमानजी ने देखा कि राक्षसों का राजा रावण बहुत ही ऊंचे सोने के सिंहासन पर बैठा हुआ है। उसके दस मुंह और बीस भुजाएं हैं। उसका रंग एकदम काला है। उसके आसपास बहुत से बलवान योद्धा और मंत्री आदि बैठे हुए हैं। लेकिन रावण के इस प्रताप और वैभव का हनुमानजी पर कोई असर नहीं पड़ा। वह वैसे ही निडर खड़े रहे जैसे सांपों के बीच में गरुड़ खड़े रहते हैं।

 

हनुमानजी को इस प्रकार अपने सामने अत्यन्त निर्भय और निडर खड़े देखकर रावण ने पूछा- बन्दर तू कौन है? किसके बल के सहारे वाटिका के पेड़ों को तुमने नष्ट किया है? राक्षसों को क्यों मारा है? क्या तुझे अपने प्राणों का डर नहीं है? मैं तुम्हें निडर और उद्दण्ड देख रहा हूं। हनुमानजी ने कहा- जो इस संपूर्ण विश्व के, इस संपूर्ण ब्रह्मांड के स्वामी हैं, मैं उन्हीं भगवान श्रीरामचंद्रजी का दूत हूं। तुम चोरी से उनकी पत्नी का हरण कर लाये हो। उन्हें वापस कर दो। इसी में तुम्हारा और तुम्हारे परिवार का कल्याण है। यदि तुम यह जानना चाहते हो कि मैंने अशोवाटिका के फल क्यों खाये, पेड़ आदि क्यों तोड़े, राक्षसों को क्यों मारा तो मेरी बात सुनो। मुझे बहुत जोर की भूख लगी थी इसलिए वाटिका के फल खा लिये। बंदर स्वभाव के कारण कुछ पेड़ टूट गये। अपनी देह सबको प्यारी होती है इसलिए जिन लोगों ने मुझे मारा, मैंने भी उन्हें मारा। इसमें मेरा क्या दोष है? लेकिन इसके बाद भी तुम्हारे पुत्र ने मुझे बांध रखा है।

 

रावण को बहुत ही क्रोध चढ़ आया। उसने राक्षसों को हनुमानजी को मार डालने का आदेश दिया। राक्षस उन्हें मारने दौड़ पड़े। लेकिन तब तक विभीषण ने वहां पहुंच कर रावण को समझाया कि यह तो दूत है। इसका काम अपने स्वामी को संदेश पहुंचाना है। इसका वध करना उचित नहीं होगा। इसे कोई अन्य दंड देना ही ठीक होगा। विभीषण की यह सलाह रावण को पसंद आ गयी। उसने कहा ठीक है बंदरों को अपनी पूंछ से बड़ा प्यार होता है। इसकी पूंछ में कपड़े लपेटकर, तेल डालकर उसमें आग लगा दो। जब यह बिना पूंछ का होकर अपने स्वामी के पास जायेगा तब फिर उसे भी साथ लेकर लौटेगा। यह कहकर वह बड़े जोर से हंसा।

 

रावण का आदेश पाकर राक्षस हनुमानजी की पूंछ में तेल भिगो भिगोकर कपड़े लपेटने लगे। अब तो हनुमानजी ने बड़ा ही मजेदार खेल किया। वह धीरे धीरे अपनी पूंछ को बढ़ाने लगे। ऐसी नौबत आ गयी कि पूरी लंका में तेल, कपड़े और घी बचे ही नहीं। अब राक्षसों ने तुरंत उनकी पूंछ में आग लगा दी। पूंछ में आग लगते ही हनुमानजी तुरंत उछलकर एक ऊंची अटारी पर जा पहुंचे और वहां से चारों ओर कूद कूदकर वह लंका को जलाने लगे। देखते ही देखते पूरी नगरी आग की विकराल लपटों में घिर गयी। सभी राक्षस और राक्षसियां जोर जोर से चिल्लाने लगे। वे सब रावण को कोसने लगे। रावण को भी आग बुझाने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। हनुमानजी की सहायता करने के लिए पवन देवता भी जोर जोर से बहने लगे। थोड़ी ही देर में पूरी लंका जलकर नष्ट हो गयी। हनुमानजी ने केवल विभीषण का घर छोड़ दिया और उसे जलाया नहीं।

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विवाद पर बोले आरिफ मोहम्मद, कहा- ये मुस्लिम महिलाओं को घर में कैद करने की साजिश

नई दिल्ली: कर्नाटक हिजाब विवाद को लेकर देशभर में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। कॉलेज परिसर में हिजाब न पहनने देने को मुस्लिम महिलाएं अपने मौलिक अधिकारों का हनन बता रही हैं। अब इस मामले पर केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने बड़ा बयान दिया है। उन्होंने हिजाब को मुस्लिम महिलाओं को प्रताड़ित करने का तरीका बताया है।

बच्चियों को जमीन में दफना देते थे मुस्लिम
उन्होंने कहा कि अरब देशों में एक समय था, जब लोग बच्चियों के जन्म लेते ही उन्हें जमीन में दफन कर देते थे। फिर इस्लाम ने इसे बंद कर दिया, लेकिन वहां यह मानसिकता आज 21वीं सदी में भी कायम है। पहले उन लोगों ने तीन तलाक का आविष्कार किया, फिर हिजाब और फिर मुस्लिम महिलाओं का प्रताड़ित करते रहने के लिए अन्य तरीके ईजाद कर लिए।

वे नहीं चाहते कि मुस्लिम महिलाएं आगे बढ़ें
आरिफ मोहम्मद ने कहा कि मुझे लगता है कि हिजाब को लेकर जो भी हो रहा है, ये विवाद नहीं है। मुझे यह एक साजिश मालूम होती है, जिसका मकसद मुस्लिम महिलाओं को उनके घरों के भीतर हीकैद करना है। आज मुस्लिम महिलाएं, लड़कों की तुलना में आगे हैं और यह विवाद उन्हें पीछे धकेलने के लिए है। 

देश के कई हिस्सों में शुरू हुए विवाद, लगातार हो रही बयानबाजी
कर्नाटक के उडुपी जिले के एक कॉलेज में मुस्लिम छात्राओं को हिजाब पहनकर आने से रोकने के बाद विवाद शुरू हुआ था। इसके बाद यह विवाद राज्य के अन्य एरिया में भी फैल गया। हिंदू संगठनों से जुड़े छात्रों ने बदले में भगवा शॉल पहनकर हिजाब वाली छात्राओं को रोकना शुरू कर दिया। इसे लेकर हिंसक तनाव बनने के बाद राज्य सरकार ने सभी तरह के धार्मिक पहचान वाले कपड़े पहनने स्कूल-कॉलेजों में पहनने पर रोक लगा दी। कुछ लोगों ने कर्नाटक सरकार के फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी है।

इसके बाद देश के कई अन्य राज्यों में भी हिजाब के कारण छात्राओं को कॉलेजों में एंट्री नहीं दिए जाने के विवाद सामने आए हैं। इसे लेकर देश के अलग-अलग हिस्सों से लगातार भड़काऊ बयान भी सामने आ रहे हैं। राजनेता भी अपने-अपने तरीके से बयान दे रहे हैं।

कर्नाटक हाईकोर्ट ने स्कूल-कॉलेजों में फिलहाल धार्मिक पहचान वाले कपड़े, चाहे वह भगवा शॉल हो या हिजाब, नहीं पहनने का अंतरिम आदेश जारी किया है। वहीं, सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस फैसले पर रोक लगाने से इनकार कर दिया है। इसके बाद से ही देशभर में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं।


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दिल्ली में तीर्थयात्रा योजना बहाल करने की तैयारी, द्वारकाधीश के लिए रवाना होगी ट्रन

नई दिल्ली। दिल्ली सरकार की बुजुर्गो के लिए तीर्थयात्रा योजना सोमवार से बहाल होगी और श्रद्धालुओं को लेकर एक ट्रेन गुजरात के द्वारकाधीश जाएगी। कोविड-19 के बढ़ते मामलों के मद्देनजर जनवरी के पहले सप्ताह में यह तीर्थयात्रा योजना रोक दी गयी थी।

दिल्ली सरकार की तीर्थयात्रा विकास समिति के अध्यक्ष कमल बंसल ने बताया कि दिल्ली से 1,000 बुजुर्ग श्रद्धालुओं को लेकर द्वारकाधीश जाने वाली ट्रेन को सोमवार शाम सात बजे सफदरजंग रेलवे स्टेशन से हरी झंडी दिखायी जाएगी। रामेश्वरम के लिए एक अन्य ट्रेन 18 फरवरी को रवाना होगी।

कोविड के मामले बढ़ने के बीच जनवरी में मुख्यमंत्री तीर्थयात्रा योजना रोक दी गयी थी। बंसल ने कहा, ‘‘हम अन्य तीर्थ स्थलों के लिए ट्रेन की घोषणा भी कर सकते हैं, क्योंकि रेलवे हमें ट्रेन की उपलब्धता के बारे में सूचित कर सकता है।’’ उन्होंने कहा कि अधिकांश वरिष्ठ नागरिकों की मांग रामेश्वरम और द्वारकाधीश के लिए थी। रामेश्वरम के लिए करीब 15,000 और द्वारकाधीश के लिए 7,000 आवेदन लंबित हैं।

बंसल ने कहा, ‘‘हम अपने बुजुर्गों की मांग पर जितना संभव हो सकता है उतनी यात्राओं की व्यवस्था करने के लिए तैयार हैं, लेकिन यह ट्रेन की उपलब्धता पर निर्भर करता है।’’ उन्होंने कहा कि दिल्ली से बुजुर्गों के लिए निशुल्क तीर्थयात्रा की योजना के तहत जनवरी में अलग-अलग तीर्थस्थलों के लिए 11 ट्रेन यात्राओं की योजना बनायी गयी, लेकिन कोरोना वायरस की तीसरी लहर के कारण यह संभव नहीं हुआ।

इस योजना के तहत 60 वर्ष और उससे अधिक आयु के लोगों को 15 मार्गों पर तीर्थयात्रा के लिए ले जाया जाता है और इसका पूरा खर्च दिल्ली सरकार उठाती है। सरकार प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक और उसके साथ जाने वाले एक व्यक्ति की यात्रा और उसके ठहरने समेत अन्य खर्च उठाती है। इस योजना के तहत दिल्ली सरकार ने 81.45 करोड़ रुपये दिए हैं जिसमें से 2021-22 में 66.92 करोड़ रुपये खर्च किए गए। अधिकारियों ने बताया कि अभी तक करीब 38,000 वरिष्ठ नागरिकों को इस योजना का फायदा मिला है।

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जातीय नेतृत्व के कुचक्र में दलित

नई दिल्ली: राजनेताओं और दलों ने डाॅ. भीमराव अंबेडकर और कथित दलित उत्थान की राजनीति को अपने राजनीतिक हितों का साधन और साध्य बना लेने से ज्यादा कुछ नहीं समझा। अतएव जो दलित एक समय मायावती की बसपा के सेवक थे, वे भाजपा और अब समाजवादी पार्टी के दर पर नतमस्तक हो रहे हैं।

 

इनमें ज्यादातर अति पिछड़े और दलित हैं। कमोबेश इसे ही स्वार्थपरक अवसरवादी राजनीति कहते हैं। साफ है, इनके लिए अंबेडकरवादी दर्शन का आदर्श स्व हित से आगे नहीं बढ़ पाया। मायावती ने भी अंबेडकर के जातिविहीन सामाजिक दर्शन को पूंजी और सामंती वैभव के भोग का पर्याय मान लिया। भविष्य में निर्मित होने वाली इन स्थितियों को शायद अंबेडकर ने 1956 में ही भांप लिया था। गोया, उन्होंने आगरा में भावुक होते हुए कहा था कि 'उन्हें सबसे ज्यादा उम्मीद दलितों में पढ़े-लिखे बौद्धिक वर्ग से थी कि वे समाज को दिशा देंगे लेकिन इस तबके ने हताश ही किया है।'

 

दरअसल अंबेडकर का अंतिम लक्ष्य जाति विहीन समाज की स्थापना थी। जाति टूटती तो स्वाभाविक रूप से समरसता व्याप्त होने लग जाती। लेकिन देश की राजनीति का यह दुर्भाग्यपूर्ण पहलू रहा कि नेता सवर्ण रहे हों या अवर्ण जाति, वर्ग भेद को ही आजादी के समय से सत्तारूढ़ होने का मुख्य हथियार बनाते रहे हैं।

 

आज मायावती को सबसे ज्यादा किसी तात्विक मोह ने कमजोर किया है तो वह है, धन और सत्ता लोलुपता। जबकि अंबेडकर इन आकर्षणों से सर्वथा निर्लिप्त थे। भारत ऐसा भुक्तभोगी देश रहा है कि जब वह सोने की चिड़िया कहा जाता था, तब उसे मुगलों ने लूटा और फिर अंग्रेजों ने। अंग्रेजों ने तो भारत के सामंतों और जमींदारों को इतनी निर्ममता से लूटा कि इंग्लैंड के औद्योगिक विकास की नींव ही भारत की धन-संपदा के बूते रखी गई। यहां के किसान और शिल्पकारों से खेती और वस्तु निर्माण की तकनीकें हथियाईं।

 

भारत के भौगोलिक विस्तार की सीमाएं सिमट जाने का कारण भी पूंजी का निजीकरण और सामंतों की भोग-विलासी जीवन शैली रही है। दुर्भाग्य से स्वतंत्र भारत में भी प्रशासनिक व्यवस्था में यही दुर्गुण समाविष्ट होकर देश को दीमक की तरह चाट रहा है। दलित नेता व अधिकारी भी अधिकार संपन्न होने के बाद उन्हीं कमजोरियों की गिरफ्त में आते गए। इसीलिए अगड़े-पिछड़ों का खेल और दल-बदल की महिमा मतदाताओं के ध्रुवीकरण की कुटिल मंशा से आगे नहीं बढ़ पाई। यही वजह रही कि उत्तर-प्रदेश जैसे जटिल, धार्मिक व सामाजिक संरचना वाले राज्य में चार बार मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती आज चुनावी सरगर्मियों के बीच मौन व उदासीन हैं। यह उनकी राजनीतिक निष्क्रियता की घोषणा तो है ही, कालांतर में नेपथ्य में चले जाने का संकेत भी है। वरना, एक समय ऐसा भी था, जब इस दलित नेत्री से बसपा को अखिल भारतीय बना देने की उम्मीद की जा रही थी और दलितों में यह उम्मीद मायावती ने ही जगाई थी कि संगठन वह शक्ति है, जो प्रजा को राजा बना सकती है।

 

बहुजन समाज पार्टी का वजूद खड़ा करने से पहले कांशीराम ने लंबे समय तक डीएस-4 के माध्यम से दलित हितों के लिए संघर्ष किया था। इसी डीएस-4 का सांगठनिक ढांचा स्थापित करते समय बसपा की बुनियाद पड़ी और समूचे हिंदी क्षेत्र में बसपा के विस्तार की प्रक्रिया आरंभ हुई। कांशीराम के वैचारिक दर्शन में दलित और वंचितों को करिश्माई अंदाज में लुभाने का चुंबकीय तेज था। फलस्वरूप बसपा एक मजबूत दलित संगठन के रूप में स्थापित हुई और उत्तर-प्रदेश में चार बार सरकार बनाई। अन्य प्रदेशों में बसपा के विधायक दल-बदल के खेल में भागीदार बनकर सरकार बनाने में सहायक बने। किसी दल का स्पष्ट बहुमत नहीं होने पर समर्थन का टेका लगाने का काम भी किया। केंद्र में मायावती यही भूमिका अभिनीत करके राज्यसभा सांसद बनती रहीं। इन साधनों के साध्य के लिए मायावती ने सामाजिक अभियांत्रिकी (सोशल इंजीनियरिंग) जैसे बेमेल प्रयोगों का भी सहारा लिया। इन प्रयोगों का दायित्व किसी दलित को सौंपने की बजाय, सनातनी ब्राह्मण सतीष मिश्रा के सुपुर्द किए। मसलन सत्ता प्राप्ति के लिए जातीय समीकरण बिठाने में मायावती पीछे नहीं रहीं।

 

अंबेडकर ने जाति विहीन समाज की पुरजोर पैरवी की थी। लेकिन कर्मचारी राजनीति के माध्यम से जातिगत संगठन बसपा की पृष्ठभूमि तैयार करने वाले कांशीराम ने अंबेडकर के दर्शन को दरकिनार कर कहा कि 'अपनी-अपनी जातियों को मजबूत करो।' यह नारा न केवल बसपा के लिए प्रेरणास्रोत बना बल्कि मंडलवादी मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, शरद यादव और नीतीश कुमार ने भी इसे अपना-अपना, परचम फहराने के लिए सिद्ध मंत्र मान लिया। गोया, इन नेताओं ने अंबेडकर द्वारा स्थापित जाति तोड़ो आंदोलन को जाति सुरक्षा आंदोलन में बदल दिया। इसीलिए मंडल आयोग की पिछड़ी जातियों को आरक्षण की सिफारिशें मान लेने के बाद अब जातिगत जनगणना की बात पुरजोरी से उठाई जा रही है, जिससे संख्या बल के आधार पर जातिगत आरक्षण व्यवस्था सरकारी नौकरियों के साथ-साथ विधायिका में भी की जा सके।

 

सतीश मिश्रा के बसपा में आगमन के बाद सामाजिक अभियांत्रिकी का बेमेल तड़के का सिलसिला तो शुरू हुआ ही, जिन लोगों को मायावती मनुवादी कहकर ललकारा करती थीं, उन्हीं मनुवादियों के कर्मकांड बसपा के मंचों पर सत्ता प्राप्ति के लिए अनिवार्य अनुष्ठान बन गए। चुनावी साभाओं में हवन कुंड बनाए जाने लगे और वैदिक मंत्रों के उच्चारण के साथ भगवान परशुराम के सोने-चांदी के फरसे प्रतीक के रूप में मायावती को भेंट किए जाने लगे। 'तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार' का जो नारा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को बतौर गाली दिया जाता था, 'वह हाथी नहीं गणेश हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं' के सनातनी संस्कार में बदल गया।

 

मायावती ब्राह्मणों की लाचारी दूर करने के बहाने कहने लगीं, 'ब्राह्मण हशिए पर चले गए हैं, इसलिए उनकी खोई गरिमा लौटाने का काम हम करेंगे।' इस गौरव के पुनर्वास के लिए मायावती ने 2017 में उत्तर-प्रदेश के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले मुख्यमंत्री रहते हुए विधानसभा से आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण के प्रस्ताव का टोटका रचकर भारत सरकार को कानून बनाने के लिए भेजा। स्वार्थपूर्ति के लिए किए जाने वाले इन आडंबरों से पता चलता है कि हमारे निर्वाचित जनप्रतिनिधि जिस संविधान के प्रति निष्ठा व अक्षरश: पालन की शपथ लेते हैं, उसे पढ़ने-समझने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं करते।

 

यहीं नहीं वे जिस दल के सदस्य होते हैं और उस दल के जिस नेता के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर, उनके गुणगान करने में थकते नहीं हैं, अमूमन उसी व्यक्ति की विचार-प्रक्रिया को पलीता लगाते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में अंबेडकर की चिंता ठीक थी कि 'मेरी चिंता इस बात के अहसास से गहरी हो जाती है कि जातिवाद और पंथवाद के रूप में मौजूद भारत की बुराइयों व कुरीतियों के कारण विभिन्न राजनीतिक दल अस्तित्व में आ सकते हैं।' आज देश में करीब 1400 राजनीतिक दल हैं, जिनका प्रमुख आधार धर्म, जाति और क्षेत्रवाद है।

 

देशभर में दलितों की आबादी 16 प्रतिशत है। पंजाब में 30, पश्चिम बंगाल में 23, उत्तर-प्रदेश में 21 और महाराष्ट्र में 10.5 फीसदी दलित आबादी है। चूंकि अंबेडकर महाराष्ट्र से थे, इसलिए ऐसा माना जाता है कि सबसे ज्यादा दलित चेतना महाराष्ट्र में है। दलित आंदोलनों की भूमि भी महाराष्ट्र रहा है। डाॅ. अंबेडकर ने यहीं रिपब्लिकन ऑफ इंडिया (आरपीआई) राजनीतिक दल का गठन किया था। लेकिन इस पार्टी के अब तक करीब 50 विभाजन हो चुके हैं। इसके कर्ताधर्ता अंबेडकर के पोते प्रकाश अंबेडकर हैं। इसी दल से निकले रामदास अठावले ने अपनी पार्टी आरपीआई-ए गठित की हुई है। उनकी मंशा भाजपा-शिवसेना तो कभी कांग्रेस-एनसीपी को समर्थन देकर सत्ता में बने रहने की रही है। यही पदलोलुपता महाराष्ट्र में दलित वर्ग को सबसे ज्यादा असंगठित किए हुए है।

 

इस नाते मायावती के इस करिश्मे को मानना पड़ेगा कि वे उत्तर-प्रदेश में अपना 22 प्रतिशत वोट 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में स्थिर रखने में सफल रही हैं। हालांकि 2014 में बसपा एक भी सीट नहीं जीत पाई। 2017 के विधानसभा चुनाव में भी उन्हें लगभग इतना ही वोट मिला था। इसी वोट की माया रही कि अगड़े और पिछड़े थैलियां लेकर उनसे बसपा का टिकट लेने की कतार में लगे रहे। किंतु अब यह मिथक टूटने को आतुर दिखाई दे रहा है। इस एक जातीय कुचक्र के टूटने भर से अन्य राजनीतिक दलों का जातिगत कुचक्र भी टूटेगा, ऐसा फिलहाल नहीं लग रहा है। गोया, जातीय गठबंधन के कुचक्र बने रहेंगे।

 

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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