अमेरिका में सिर्फ 30 दिनों के भीतर होगी मास डिपोर्टेशन

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप देश में रहने वाले अप्रवासी नागरिकों के खिलाफ बड़ी कार्रवाई करने वाले हैं. इस बात की घोषणा अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ होमलैंड सिक्योरिटी (DHS) ने शुक्रवार (21 मार्च) को की. DHS ने अपनी घोषणा में बताया कि वह अमेरिका में क्यूबा, हैती, निकारागुआ और वैनेजुएला के 5 लाख से ज्यादा अप्रवासियों के कानूनी सुरक्षा को खत्म कर देगा. इस कदम के बाद इन देशों के लोगों पर 30 दिनों के भीतर मास डिपोर्टेशन का खतरा सामने मंडराने लगेगा.

एसोसिएटेड प्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के इस आदेश का प्रभाव उन लोगों पर पड़ेगा जो साल 2022 के अक्टूबर से ह्यूमनिटेरियन पेरोल प्रोग्राम के तहत संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रवेश किया था. इस प्रोग्राम के तहत अमेरिका आए अप्रवासियों को दो साल के लिए यहां रहने और काम करने की अनुमति दी गई थी.

30 दिनों में अप्रवासियों पर होगा बड़ा एक्शन

DHS की सेक्रेटरी क्रिस्टी नोएम ने अपने एक बयान में कहा, “अमेरिका के फेडरल रजिस्टर में नोटिस के प्रकाशित होने के बाद उक्त देशों के अप्रवासियों की 30 दिनों में हीं 24 अप्रैल तक कानूनी दर्जे को खत्म कर दिया जाएगा.

अमेरिका के डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन के इस कदम से क्यूबा, हैती, निकारागुआ और वेनेजुएला के  करीब 5,32,000 लोगों पर असर पड़ने वाला है, जो पूर्ववर्ती जो बाइडेन प्रशासन की ओर लागू किए गए पेरोल प्रोग्राम के तहत अमेरिका में दाखिल हुए, जिन्हें यहां फाइनेंशियल स्पॉनसर्स मिले और अमेरिका में अस्थायी दर्जा दिया गया.

इमिग्रेशन पॉलिसी में बदलाव के बाद लिया गया फैसला

डोनाल्ड ट्रंप के यह फैसला अमेरिका के इमिग्रेशन पॉलिसी में एक व्यापक बदलाव के बाद लिया गया है और यह डोनाल्ड ट्रंप के प्रशासन के उन कदमों की याद दिलाता है, जिसका उद्देश्य ह्यूमनिटेरियन पेरोल प्रोग्राम के तहत होने वाले दुरुपयोग को रोकना था.

एपी की रिपोर्ट के मुताबिक, इस कानूनी हथियार का इस्तेमाल ऐतिहासिक रूप से युद्ध या राजनीतिक अस्थिरता का सामना कर रहे देशों के नागरिकों को अस्थायी रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रवेश करने और रहने की अनुमति देने के लिए किया जाता रहा है.


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भारतीय क्षेत्र पर चीन के अवैध कब्जे को कभी स्वीकार नहीं किया

सरकार ने शुक्रवार को संसद में बताया कि भारत को चीन द्वारा दो नयी ‘काउंटी' सृजित किए जाने की जानकारी है, जिनके कुछ हिस्से लद्दाख में आते हैं और नयी दिल्ली ने राजनयिक माध्यमों से ‘‘कड़ा'' विरोध दर्ज कराया है. विदेश राज्य मंत्री कीर्ति वर्धन सिंह ने लोकसभा में एक प्रश्न के लिखित उत्तर में कहा, ‘‘भारत सरकार ने उक्त क्षेत्र में भारतीय भू-भाग पर चीन के अवैध कब्जे को कभी स्वीकार नहीं किया है. नई काउंटी बनाए जाने से न तो इस क्षेत्र पर भारत की संप्रभुता के संबंध में हमारे दीर्घकालिक रुख पर कोई असर पड़ेगा और न ही इससे चीन के अवैध और जबरन कब्जे को वैधता मिलेगी.''

उन्होंने कहा कि सरकार ने ‘‘राजनयिक माध्यमों से इन घटनाक्रमों पर अपना कड़ा विरोध दर्ज कराया है.'' मंत्रालय से पूछा गया था कि क्या सरकार को ‘‘लद्दाख में भारतीय क्षेत्र को शामिल करते हुए होटन प्रांत में चीन द्वारा दो नयी काउंटी बनाने'' के बारे में जानकारी है, यदि हां, तो सरकार ने इस मुद्दे को हल करने के लिए क्या रणनीतिक और कूटनीतिक उपाय किए .

सिंह ने कहा, ‘‘भारत सरकार चीन के होटन प्रांत में तथाकथित दो नयी काउंटी की स्थापना से संबंधित चीन की घोषणा से अवगत है. इन तथाकथित काउंटी के अधिकार क्षेत्र के कुछ हिस्से भारत के केंद्र-शासित प्रदेश लद्दाख में आते हैं.''

उन्होंने कहा कि सरकार इस बात से भी अवगत है कि चीन ‘‘सीमावर्ती क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे का विकास कर रहा है.'' विदेश राज्य मंत्री ने कहा, ‘‘सरकार सीमावर्ती क्षेत्रों के विकास के लिए बुनियादी ढांचे में सुधार पर सावधानीपूर्वक और विशेष ध्यान दे रही है, ताकि इन क्षेत्रों के आर्थिक विकास को गति दी जा सके और साथ ही भारत की सामरिक और सुरक्षा आवश्यकताओं को भी पूरा किया जा सके।''


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ट्रम्प का शिक्षा विभाग को बंद करने का ऑर्डर

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने गुरुवार को शिक्षा विभाग बंद करने से जुड़े आदेश (एग्जीक्यूटिव ऑर्डर) पर दस्तखत कर दिया। ट्रम्प ने दस्तखत करने के बाद कहा कि अमेरिका लंबे समय से छात्रों को अच्छी शिक्षा नहीं दे रहा है।

उन्होंने कहा कि अमेरिका किसी भी देश की तुलना में शिक्षा पर सबसे ज्यादा खर्च करता है, लेकिन सफलता की बात आती है तो देश लिस्ट में सबसे निचले स्थान पर है। शिक्षा विभाग सुधार में फेल रहा। अब यह हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा।

45 साल में 259 लाख करोड़ से ज्यादा खर्च

व्हाइट हाउस के आंकड़ों के अनुसार डिपार्टमेंट पिछले 40 साल में भारी खर्च के बावजूद एजुकेशन में सुधार करने में असफल रहा है। 1979 से अमेरिकी शिक्षा विभाग ने 3 ट्रिलियन डॉलर (करीब 259 लाख करोड़ रुपए) से ज्यादा खर्च किए हैं।

इसके बावजूद 13 साल के बच्चों की मैथ और रीडिंग का स्कोर सबसे निचले स्तर पर है। चौथी क्लास के 10 में से 6 और आठवीं कक्षा के करीब तीन-चौथाई स्टूडेंट ठीक तरह से मैथ्स नहीं कर पाते। चौथी और आठवीं क्लास के 10 में से 7 स्टूडेंट ठीक से पढ़ नहीं पाते, जबकि चौथी क्लास के 40% स्टूडेंट बेसिक रीडिंग का स्तर भी पूरा नहीं कर पाते हैं।

शिक्षा विभाग का बजट 20 लाख करोड़ रुपए

साल 2024 में शिक्षा विभाग का बजट 238 बिलियन डॉलर (20.05 लाख करोड़ रुपए) का था। यह देश के कुल बजट का करीब 2% है। विभाग के पास लगभग 4,400 कर्मचारी हैं। यह बाकी सारे विभागों की तुलना में सबसे कम है।

ट्रम्प ने कहा कि शिक्षा विभाग कोई बैंक नहीं है। ऐसे काम कोई और जिम्मेदार संस्था करेगी। अब से इस पर शिक्षा विभाग का अधिकार नहीं होगा, बल्कि राज्यों और स्थानीय समुदायों को इसकी जिम्मेदारी मिलेगी।

हालांकि, आदेश में कहा गया कि दिव्यांग बच्चों के लिए ग्रांट और फंडिंग जैसे जरूरी प्रोग्राम जारी रहेंगे। ये प्रोग्राम अन्य एजेंसियों को सौंपे जाएंगे। ट्रम्प ने भाषण के दौरान अमेरिकी शिक्षकों की तारीफ की और कहा कि उनका ध्यान रखा जाएगा।

फैसले को शिक्षा विभाग ने ऐतिहासिक बताया

ट्रम्प के आदेश पर साइन करने के बाद शिक्षा विभाग ने एक बयान जारी किया और इसे ऐतिहासिक बताया। विभाग ने कहा- हम कानून का पालन करेंगे। संसद और राज्यों के साथ मिलकर नौकरशाही को खत्म करेंगे। इस फैसले से अमेरिकी छात्रों की आने वाली पीढ़ियां मुक्त होंगी और वे बेहतर शिक्षा हासिल कर पाएंगे।

वहीं, अमेरिकन काउंसिल ऑन एजुकेशन के अध्यक्ष टेड मिशेल ने ट्रम्प के इस कदम की निंदा की है। उन्होंने इसे एक 'राजनीतिक नाटक' करार दिया और कहा कि इस फैसले से फंडिंग में कमी आएगी जिससे विभाग में कर्मचारियों की संख्या में कटौती होगी। इससे देश में हायर एजुकेशन को नुकसान पहुंचेगा।

स्कूलों से जेंडर डिस्फोरिया खत्म करना चाहते हैं ट्रम्प

ट्रम्प का आरोप है कि अमेरिकी स्कूल बच्चों को रेडिकल और एंटी अमेरिकन बना रहे हैं। ट्रम्प स्कूल से जेंडर डिस्फोरिया को खत्म करना चाहते हैं। जेंडर डिस्फोरिया का मतलब है कि कोई व्यक्ति अपने जेंडर से अपनी पहचान नहीं कर पाता है।

जेंडर डिस्फोरिया को इस उदाहरण से समझ सकते हैं कि कोई व्यक्ति जो जन्म के समय महिला के रूप में पहचाना गया, यानी उसका बर्थ जेंडर फीमेल है, लेकिन वह खुद को पुरुष के रूप में महसूस करता है। ऐसे में वह खुद के पुरुष होने का दावा कर सकता है। ट्रम्प इसे ‘ट्रांसजेंडर पागलपन’ कहते हैं।

शिक्षा विभाग को बंद करना क्यों है मुश्किल?

एक्सपर्ट्स का मानना है कि ट्रम्प के आदेश के बाद शिक्षा विभाग को बंद करना मुश्किल है। दरअसल, इसे बंद करने लिए अमेरिकी सीनेट (संसद का ऊपरी सदन) में 60 वोटों की जरूरत होगी, लेकिन यहां ट्रम्प की रिपब्लिकन के पास सिर्फ 53 सीटें हैं। ट्रम्प को 7 डेमोक्रेटिक सांसदों का वोट चाहिए जो कि राजनीतिक तौर पर असंभव काम है।

पिछले साल भी शिक्षा विभाग को समाप्त करने की कोशिश हुई थी। इसे एक अन्य विधेयक में संशोधन के रूप में जोड़ा गया था, लेकिन यह पारित नहीं हो सका क्योंकि सदन में सभी डेमोक्रेट्स के साथ 60 रिपब्लिकनों ने भी इसके विरोध में वोटिंग की थी।

शिक्षा विभाग को 1979 में अमेरिकी कांग्रेस (संसद) ने कैबिनेट स्तर की एजेंसी के तौर पर स्थापित किया था। इस डिपार्टमेंट के पास 268 अरब डॉलर डॉलर के फंडिंग प्रोग्राम की जिम्मेदारी है। यह स्टुडेंट्स के लिए लोन और स्पेशल एजुकेशन जैसे प्रोग्राम की देखरेख करती है। इसके साथ ही कम आय वाले स्कूलों को लोन भी देती है।

विभाग बंद हुआ तो स्कूलों में असमानता पैदा होने का खतरा

कई एक्सपर्ट्स को लगता है कि इस फैसले से सार्वजनिक शिक्षा गलत असर पड़ सकता है। केंद्र की निगरानी को हटाने से स्कूलों में असमानता पैदा हो सकती है। कुछ लोगों का मानना है कि शिक्षा विभाग सभी छात्रों के लिए समान अवसर तय करने में जरूरी रोल निभाता है।

ट्रम्प के समर्थकों का कहना है कि शिक्षा पर लोकल कंट्रोल ज्यादा बेहतर रहेगा। स्थानीय नेता, माता-पिता और स्कूल लोकल जरूरतों को बेहतर तरीके से समझते हैं।

व्हाइट हाउस की तरफ से हैरिसन फील्ड्स ने मीडिया से कहा कि यह ऑर्डर माता-पिता और स्कूलों को बच्चों का रिजल्ट बेहतर करने में मदद करेगा। नेशनल असेसमेंट टेस्ट के हालिया स्कोर बताते हैं कि हमारे बच्चे पिछड़ रहे हैं।

कई विभागों में छंटनी कर चुके हैं ट्रम्प

20 जनवरी को शपथ लेने के बाद से ट्रम्प कई डिपार्टमेंट में छंटनी कर चुके हैं। ट्रम्प प्रशासन ने संघीय कर्मचारियों को बायआउट करने यानी खुद से नौकरी छोड़ने का ऑफर दिया था। नौकरी छोड़ने के बदले कर्मचारियों को 8 महीने का अतिरिक्त वेतन देने की बात कही थी।

इसके अलावा ट्रम्प ने USAID के तहत विदेशों को दी जाने वाली सभी तरह की मदद पर रोक लगाने का भी आदेश दिया है।

संघीय सरकार में 30 लाख से ज्यादा कर्मचारी

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक संघीय कर्मचारियों की संख्या 30 लाख से ज्यादा है। यह अमेरिका की 15वीं सबसे बड़ी वर्कफोर्स है। प्यू रिसर्च के मुताबिक एक संघीय कर्मचारी का औसत कार्यकाल 12 साल का होता है।


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ईरान के आर्यों ने बलूचिस्तान बसाया, औरंगजेब से छीना इलाका

साल 1540 की बात है, भारत के पहले मुगल शासक बाबर के बेटे हुमायूं को बिहार के शेरशाह सूरी ने युद्ध में हरा दिया। हुमायूं भारत से भाग खड़ा हुआ। उसने फारस यानी ईरान में शरण ली। 1545 में शेरशाह सूरी की मौत हो गई।

मौके को भांपकर हुमायूं ने भारत वापस लौटने की योजना बनाना शुरू कर दिया। तब बलूचिस्तान के कबीलाई सरदारों ने उसके इस प्लान में मदद की। बलूचों का साथ पाकर 1555 में हुमायूं ने दिल्ली पर फिर से नियंत्रण कर लिया।

साल 1659। मुगल बादशाह औरंगजेब दिल्ली का शासक बना। उसकी सत्ता पश्चिम में ईरान के बॉर्डर तक थी, लेकिन दक्षिण में उसे लगातार मराठों की चुनौतियों से जूझना पड़ा रहा था।

तब बलूची सरदारों ने मुगल हुकूमत के खिलाफ विद्रोह छेड़ा और बलूच लीडर मीर अहमद ने 1666 में बलूचिस्तान के दो इलाकों- कलात और क्वेटा को औरंगजेब से छीन लिया।

बलूचिस्तान का इतिहास 9 हजार साल पुराना

आज जहां बलूचिस्तान है, उस जगह का इतिहास करीब 9 हजार साल पुराना है। तब यहां मेहरगढ़ हुआ करता था। ये सिंधु सभ्यता का एक प्रमुख शहर था। लगभग 3 हजार साल पहले जब सिंधु सभ्यता का अंत हुआ तो यहां के लोग सिंध और पंजाब के इलाके में बस गए। इसके बाद ये शहर वैदिक सभ्यता के प्रभाव में आया।

यहां पर हिंदुओं की प्रमुख शक्तिपीठ में से एक- हिंगलाज माता का मंदिर भी है, जिसे पाकिस्तान में नानी का हज भी कहा जाता है। समय के साथ ये शहर बौद्ध धर्म का भी एक प्रमुख केंद्र बना। सातवीं सदी में जब अरब हमलावरों ने इस इलाके पर हमला किया, तो यहां पर इस्लाम धर्म का प्रभाव बढ़ा।

बलूच पाकिस्तान में कैसे आकर बसे, इसे लेकर दो थ्योरी...

पहली थ्योरी: लोक कथाओं के मुताबिक

बलूचिस्तान की कलात रियासत के आखिरी शासक मीर अहमद यार खान ने अपनी किताब ‘इनसाइड बलूचिस्तान’ में लिखा है कि बलूच लोग खुद को पैगंबर इब्राहिम के वंशज मानते हैं। वे सीरिया के इलाके में रहते थे। यहां बारिश की कमी और अकाल वजह से इन लोगों ने पलायन करना शुरू कर दिया

सीरिया से निकल कर इन लोगों ने ईरान के इलाके में डेरा डाला। यह बात तब के ईरानी राजा नुशेरवान को पसंद नहीं आई और उन्होंने इन लोगों को यहां से खदेड़ दिया। इसके बाद ये लोग उस इलाके में पहुंचे, जिसे बाद में बलूचिस्तान का नाम दिया गया।

जिस वक्त बलूच ईरान से चले थे, तब उनके सरदार मीर इब्राहिम थे। जब वे बलूचिस्तान पहुंचे तो उनकी जगह मीर कम्बर अली खान ने ले ली। इस कबीले को पैगंबर इब्राहिम के नाम पर ब्राहिमी कहा गया, जो बाद में ब्रावी या ब्रोही बन गया।

हिंदू राजवंश को हटाने में बलूचों ने मुगलों की मदद की

बलूच लोग इस इलाके में बस गए। कई सौ साल बाद जब हिंदुस्तान में मुगलों का शासन हुआ, तो वे बलूच लोगों के सहयोगी बन गए। इस दौरान बलूचिस्तान के कलात इलाके में सेवा (Sewa) वंश का शासन था, जिसे एक हिंदू राजवंश माना जाता है। इस राजवंश की एक प्रसिद्ध शासक रानी सेवी (Rani Sewi) थीं, जिनके नाम पर बाद में सिबि (Sibi) क्षेत्र का नाम पड़ा।

सेवा वंश का शासन मुख्य रूप से कलात और उसके आसपास के क्षेत्रों में था और यह राजवंश उस समय हिंदू परंपराओं का पालन करता था। भारत के मुगल शासक अकबर ने 1570 के दशक में बलूचों की मदद से कलात पर हमला किया और सेवा राजवंश से इसका नियंत्रण छीन लिया।

17वीं सदी के बीच में मुगलों की पकड़ कमजोर होने लगी और बलूच जनजातियों ने विद्रोह करना शुरू कर दिया। 18वीं सदी तक मुगलों ने यहां शासन किया, लेकिन बलूचों ने उन्हें यहां से खदेड़ दिया। यहां से बलूचों ने कलात में अपनी रियासत की बुनियाद रखी और बलूचिस्तान में बलूचों का शासन शुरू हुआ।

दूसरी थ्योरी: इतिहासकारों के मुताबिक

इतिहासकार कहते हैं कि बलूच लोग इंडो-ईरानी लोगों के ज्यादा करीब हैं, बजाय सीरिया के अरबी लोगों के। इंडो ईरानी लोगों को आर्यन भी कहा जाता है। इस लिहाज से इतिहासकारों को लगता है कि बलूच भी आर्यन हैं। आर्य हजारों साल पहले सेंट्रल एशिया में रहते थे, लेकिन खराब मौसम और युद्ध के हालात के चलते वहां से दूसरी जगह की तलाश में निकले।

वहां से निकलकर पहले आर्मेनिया और अजरबैजान पहुंचे। वे अजरबैजान के ब्लासगान इलाके में रहने लगे। यहां आर्यों की भाषा और लहजा मिलाकर नई जुबान बनाई गई, जिसे बलशक या बलाशोकी नाम दिया गया। आर्यों को बलाश कहा जाने लगा

ईसा से 550 साल पहले अजरबैजान ईरान के खाम साम्राज्य के कब्जे में आ गया। 224-651 ईस्वी में सासानी साम्राज्य स्थापित हुआ। छठी सदी के आखिर में और सातवीं सदी की शुरुआत में इस इलाके में बाहर से हमले बढ़ गए और मौसम भी खराब रहने लगा। तो सेंट्रल एशिया से यहां आकर बसे आर्य अलग-अलग इलाकों में जा बसे।

कुछ लोग ईरान के जनूबी (दक्षिण) चले गए और कुछ लोग ईरान के मगरिब (पश्चिम) चले गए। जनूबी की तरफ गए आर्य वहां से और आगे ईरान के कमान और सीस्तान पहुंच गए। यहां इनका नाम बदल कर बलाश से बलूच और बोली का नाम बलाशोकी से बदल कर बलूची हो गया। धीरे-धीरे इन बलूच लोगों ने सीस्तान से आगे के इलाके में दाखिल होते गए। इसी इलाके को बाद में बलूचिस्तान कहा गया।

पाकिस्तान का सबसे बड़ा राज्य है बलूचिस्तान

बलूचिस्तान, पाकिस्तान का सबसे बड़ा राज्य है और 44 फीसदी हिस्सा कवर करता है। जर्मनी के आकार का होने का बावजूद यहां की आबादी सिर्फ डेढ़ करोड़ है, जर्मनी से 7 करोड़ कम।

बलूचिस्तान तेल, सोना, तांबा और अन्य खदानों से सम्पन्न है। इन संसाधनों का इस्तेमाल कर पाकिस्तान अपनी जरूरतें पूरी करता है। इसके बाद भी ये इलाका सबसे पिछड़ा है।

यही वजह है कि बलूचिस्तान में पाकिस्तान के खिलाफ नफरत बढ़ रही है। पाकिस्तान का कब्जा होने के बाद से बलूचिस्तान में 5 बड़े विद्रोह हुए हैं। सबसे हालिया विद्रोह 2005 में शुरू हुआ था जो आज भी जारी है।

आधुनिक बलूचिस्तान का इतिहास 150 साल पुराना

आधुनिक बलूचिस्तान की कहानी 1876 से शुरू होती है। तब बलूचिस्तान पर कलात रियासत का शासन था। भारतीय उपमहाद्वीप पर ब्रिटिश हुकूमत शासन कर रही थी। इसी साल ब्रिटिश सरकार और कलात के बीच संधि हुई।

संधि के मुताबिक अंग्रेजों ने कलात को सिक्किम और भूटान की तरह प्रोटेक्टोरेट स्टेट का दर्जा दिया। यानी भूटान और सिक्किम की तरह कलात के आंतरिक मामलों में ब्रिटिश सरकार का दखल नहीं था, लेकिन विदेश और रक्षा मामलों पर उसका नियंत्रण था।

भारत की तरह कलात में भी आजादी की मांग तेज हुई

1947 में भारतीय उपमहाद्वीप में आजादी की प्रक्रिया की शुरुआत हुई। भारत और पाकिस्तान की तरह कलात में भी आजादी की मांग तेज हो गई। जब 1946 में ये तय हो गया कि अंग्रेज भारत छोड़ रहे हैं, तब कलात के खान यानी शासक मीर अहमद खान ने अंग्रेजों के सामने अपना पक्ष रखने के लिए मोहम्मद अली जिन्ना को सरकारी वकील बनाया।

बलूचिस्तान नाम से एक नया देश बनाने के लिए 4 अगस्त 1947 को दिल्ली में एक बैठक बुलाई गई। इसमें मीर अहमद खान के साथ जिन्ना और जवाहर लाल नेहरू भी शामिल हुए। बैठक में जिन्ना ने कलात की आजादी की वकालत की।

बैठक में ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने भी माना कि कलात को भारत या पाकिस्तान का हिस्सा बनने की जरूरत नहीं है। तब जिन्ना ने ही ये सुझाव दिया कि चार जिलों- कलात, खरान, लास बेला और मकरान को मिलाकर एक आजाद बलूचिस्तान बनाया जाए।

11 अगस्त को बलूचिस्तान अलग देश बना, ब्रिटेन ने लगाया अड़ंगा

11 अगस्त 1947 को कलात और मुस्लिम लीग के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए। इसके साथ ही बलूचिस्तान एक अलग देश बन गया। हालांकि, इसमें एक पेंच ये था कि बलूचिस्तान की सुरक्षा पाकिस्तान के हवाले थी।

आखिरकार कलात के खान ने 12 अगस्त को बलूचिस्तान को एक आजाद देश घोषित कर दिया। बलूचिस्तान में मस्जिद से कलात का पारंपरिक झंडा फहराया गया। कलात के शासक मीर अहमद खान के नाम पर खुतबा पढ़ा गया।

लेकिन, आजादी घोषित करने के ठीक एक महीने बाद 12 सितंबर को ब्रिटेन ने एक प्रस्ताव पारित किया और कहा कि बलूचिस्तान एक अलग देश बनने की हालत में नहीं है। वह अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियां नहीं उठा सकता।

अपनी ही बात से पलटे जिन्ना, विलय का दिया प्रस्ताव

कलात के खान ने अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान का दौरा किया। उन्हें उम्मीद थी कि जिन्ना उनकी मदद करेंगे। जब खान कराची पहुंचे तो वहां मौजूद हजारों बलूच लोगों ने उनका स्वागत बलूचिस्तान के राजा की तरह किया, लेकिन उनका स्वागत करने पाकिस्तान का कोई बड़ा अधिकारी नहीं पहुंचा।

पाकिस्तान के इरादे में बदलाव का यह बड़ा संकेत था। अपनी किताब 'बलूच राष्ट्रवाद’ में ताज मोहम्मद ब्रेसीग ने जिन्ना और खान के बीच बैठक का जिक्र किया है। बैठक में जिन्ना ने खान से बलूचिस्तान का पाकिस्तान में विलय करने की बात कही।

कलात के शासक ने बात नहीं मानी। उन्होंने कहा कि बलूचिस्तान कई जनजातियों में बंटा देश है। वह अकेले यह तय नहीं कर सकते। बलूचिस्तान आजाद मुल्क रहेगा या पाकिस्तान के साथ जाएगा ये वहां की जनता तय करेगी।

वादे के मुताबिक खान ने बलूचिस्तान जाकर विधानसभा की बैठक बुलाई जिसमें पाकिस्तान से विलय का विरोध किया गया। पाकिस्तान का दबाव बढ़ने लगा था। मामले को समझते हुए खान ने कमांडर-इन-चीफ ब्रिगेडियर जनरल परवेज को सेना जुटाने और हथियार गोला-बारूद की व्यवस्था करने को कहा।

ब्रिटेन ने कलात को सैन्य सहायता देने से इनकार किया

जनरल परवेज हथियार हासिल करने के लिए दिसंबर 1947 में लंदन पहुंचे। ब्रिटिश सरकार ने कहा कि पाकिस्तान की मंजूरी के बिना उन्हें कोई सैन्य सहायता नहीं मिलेगी।

जिन्ना मामले को भांप गए थे। उन्होंने 18 मार्च 1948 को खारन, लास बेला और मकरान को अलग करने की घोषणा की। दुश्का एच सैय्यद ने अपनी किताब 'द एक्सेशन ऑफ कलात: मिथ एंड रियलिटी' में लिखा है कि जिन्ना के एक फैसले से कलात चारों तरफ से घिर गया।

जिन्ना ने कई बलूच सरदारों को अपनी तरफ मिला लिया, जिससे खान को पास कोई चारा नहीं रहा। इसके बाद खान ने भारतीय अधिकारियों और अफगान शासक से मदद के लिए अनुरोध किया, लेकिन कोई सफलता नहीं मिली।

27 मार्च, 1948 को ऑल इंडिया रेडियो ने राज्य विभाग के सचिव वी.पी. मेनन के हवाले से कहा कि कलात के खान ने भारत से विलय के लिए संपर्क किया था, लेकिन भारत सरकार ने ये मांग ठुकरा दी। हालांकि, बाद में तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल और फिर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस बयान का खंडन किया।

227 दिन आजाद रहा बलूचिस्तान, शुरू हुआ विद्रोह

26 मार्च को पाकिस्तानी सेना बलूचिस्तान में घुस गई। अब खान के पास जिन्ना की शर्तें मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, लेकिन इस कब्जे से बलूचिस्तान की एक बड़ी आबादी के मन में पाकिस्तान के लिए नफरत पैदा हो गई। बलूचिस्तान सिर्फ 227 दिनों तक ही आजाद देश बना रह सका।

इसके बाद खान के भाई प्रिंस करीम खान ने बलूच राष्ट्रवादियों का एक दस्ता तैयार किया। उन्होंने 1948 में पाकिस्तान के खिलाफ पहला विद्रोह शुरू किया। पाकिस्तान ने 1948 के विद्रोह को कुचल दिया। करीम खान समेत कई लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया।

विद्रोह को तब भले ही दबा दिया गया, लेकिन ये कभी खत्म नहीं हुआ। बलूचिस्तान की आजादी के लिए शुरू हुए इस विद्रोह को नए नेता मिलते रहे। 1950, 1960 और 1970 के दशक में वे पाकिस्तान सरकार के लिए चुनौती बनते रहे। 2000 तक पाकिस्तान के खिलाफ चार बलूच विद्रोह हुए।

रेप की एक घटना के बाद शुरू हुआ पांचवां विद्रोह

2005 में 2 और 3 जनवरी की दरम्यानी रात थी। बलूचिस्तान के सुई इलाके में पाकिस्तान पेट्रोलियम लिमिटेड अस्पताल में काम करने वाली एक महिला डॉक्टर शाजिया खालिद अपने कमरे में सो रही थी। तभी एक पाकिस्तानी सेना के कैप्टन ने उसका रेप किया। कैप्टन को गिरफ्तार करने के बजाय उसका बचाव किया गया, क्योंकि वह राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ का खास था।

जांच के नाम पर पहले पीड़ित को एक साइकेट्रिक क्लिनिक भेज दिया गया। उस पर ही गलत इल्जाम लगाए गए। जांच के नाम पर लीपापोती हुई। मजबूर होकर शाजिया और उनके पति पाकिस्तान छोड़कर ब्रिटेन चले गए।

यह घटना बलूचिस्तान में हुई। तब बुगती जनजाति के मुखिया नवाब अकबर खान बुगती ने इसे अपने कबीले के संविधान का उल्लंघन बताया। बुगती पहले पाकिस्तान के रक्षा मंत्री रहे चुके थे। लेकिन इस वक्त वे बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी (BLA) के लीडर बन चुके थे और बलूचिस्तान के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे थे।

बुगती ने पाकिस्तान से बदला लेने की कसम खाई

इस घटना ने बुगती को पाकिस्तान सरकार से बदला लेने का मौका दे दिया। उन्होंने किसी भी कीमत पर बदला लेने की कसम खाई। बलूच विद्रोहियों ने सुई गैस फील्ड पर रॉकेटों से हमला कर दिया। कई सैनिक मारे गए। जवाब में मुशर्रफ ने मुकाबले के लिए 5000 और सैनिक भेज दिए। इस तरह बलूचों के पांचवें विद्रोह की शुरुआत हुई।

17 मार्च की रात पाकिस्तानी सेना ने अकबर बुगती के घर पर बमबारी की। इसमें 67 लोग मारे गए। अकबर बुगती के घरों के लोगों के मारे जाने से बलूच और भड़क गए। उनका पाकिस्तान सरकार के खिलाफ संघर्ष और तेज हो उठा। हालांकि, 26 अगस्त 2006 को भांबूर पहाड़ियों में छुपे अकबर बुगती और उनके दर्जनों साथियों की बमबारी कर हत्या कर दी गई।

बुगती की हत्या ने बलूचिस्तान की सभी जनजातियों को एकजुट कर दिया। बलूच लड़ाकों ने इसके बदले पाकिस्तान के कई इलाकों पर हमले किए। तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ की हत्या की भी कोशिश की गई।

बुगती के बाद BLA का नेतृत्व नवाबजादा बालाच मिरी ने संभाला, लेकिन साल 2007 में उसे भी पाकिस्तानी सेना ने मार डाला। BLA ने साल 2009 से पंजाबियों को निशाना बनाना शुरू किया। इस साल बलूचिस्तान में 500 से ज्यादा पंजाबी मार दिए गए। इसके बाद पाकिस्तान की सेना ने सिस्टमैटिक तरीके से बलूचों को गायब करना शुरू किया।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक पिछले 15 साल में पाकिस्तानी सेना ने 5 हजार से ज्यादा बलूचों को गायब कर दिया है। इन्हें मार दिया गया है या फिर इन्हें ऐसी जगह कैद कर रखा है, जिसकी कोई खबर नहीं है।

बलूचिस्तान में चीन ने प्रोजेक्ट शुरू किया, बलूचों का विरोध झेला

इस बीच बलूचिस्तान में चीन की एंट्री हुई। बलूचिस्तान, चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (CPEC) का एक अहम हिस्सा है। CPEC चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की 'बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव' का पार्ट है। बलूचिस्तान में एक ग्वादर पोर्ट है, जो इस प्रोजेक्ट में सबसे खास जगह माना जाता है।

चीन, पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट को शिनजिंयाग से जोड़ने के लिए अब तक 46 अरब डॉलर खर्च कर चुका है। वह अरब देशों के संसाधनों को अपने देश तक लाने के लिए ग्वादर पोर्ट पर इतना खर्च कर रहा है। चीन यहां पर सड़कों को चौड़ा कर रहा है और हवाई पोर्ट बनाने में जुटा है। लेकिन बलूच इसमें समस्या खड़ी कर रहे हैं।


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मोदी को मॉरीशस का सर्वोच्च सम्मान मिला, राष्ट्रीय दिवस समारोह में शामिल हुए मोदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मॉरीशस दौरे का आज दूसरा दिन है। वे मॉरीशस के 57वें राष्ट्रीय दिवस समारोह में शामिल होने पहुंचे हैं। PM मोदी बतौर मुख्य अतिथि इस समारोह में शामिल हुए हैं।

मॉरीशस को 12 मार्च 1968 को ब्रिटिश से आजादी मिली थी। यह राष्ट्रमंडल के तहत 1992 में गणतंत्र बना। भारतीय मूल के भारतीय मूल के सर शिवसागर रामगुलाम की अगुआई में मॉरीशस को आजादी मिली थी। इस दिन को मॉरीशस राष्ट्रीय दिवस के तौर पर मनाता है।

आज के समारोह में भारतीय सेना की एक टुकड़ी, नौसेना का एक वॉरशिप और एयरफोर्स की आकाश गंगा स्काई डाइविंग टीम भी इस समारोह में हिस्सा ले रही है। इस दौरान भारी बारिश भी हो रही है।

इस दौरान PM मोदी को मॉरीशस के सर्वोच्च पुरस्कार 'द ग्रैंड कमांडर ऑफ द ऑर्डर ऑफ द स्टार एंड की ऑफ द इंडियन ओशन' दिया गया। मोदी यह सम्मान पाने वाले पहले भारतीय हैं। किसी देश की तरफ से पीएम मोदी को दिया गया यह 21वां अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार है।

भारत और मॉरीशस में 8 समझौते पर सहमति

भारत और मॉरीशस के प्रधानमंत्रियों के बीच आज सुबह द्विपक्षीय बातचीत हुई। दोनों देशों के बीच 8 समझौते हुए हैं। PM मोदी और मॉरीशस PM ने ज्वाइंट प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित भी किया।

इस दौरान मॉरीशस के PM नवीनचंद्र रामगुलाम ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमारे स्वतंत्रता के 57वें वर्षगांठ के राष्ट्रीय दिवस समारोह में अपनी उपस्थिति से हमें सम्मानित किया है। उनकी मौजूदगी दोनों देशों के बीच अच्छे संबंधों का सबूत है।

वहीं PM मोदी ने कहा,

140 करोड़ भारतीयों की ओर से मैं मॉरीशस के लोगों को उनके राष्ट्रीय दिवस पर बधाई देता हूं। यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे एक बार फिर मॉरीशस के राष्ट्रीय दिवस पर यहां आने का अवसर मिला। भारत और मॉरीशस सिर्फ हिंद महासागर से ही नहीं, बल्कि साझा संस्कृति और मूल्यों से भी जुड़े हुए हैं

उन्होंने बताया कि भारत-मॉरीशस साझेदारी को 'एनहैन्स्ड स्ट्रेटजिक पार्टनरशिप' का दर्जा देने का फैसला किया। भारत मॉरीशस में नया संसद भवन बनवाने में मदद करेगा। इसे PM मोदी ने मॉरीशस के लिए 'लोकतंत्र की जननी' भारत की ओर से एक उपहार बताया।

PM मोदी ने आज मॉरीशस के पूर्व प्रधानमंत्री प्रविंद कुमार जगन्नाथ और नेता प्रतिपक्ष जॉर्जेस पियरे के साथ मुलाकात भी की। 

मॉरीशस के राष्ट्रपति को महाकुंभ का गंगाजल गिफ्ट किया

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कल मॉरीशस के राष्ट्रपति धरम गोखूल से मुलाकात की। PM ने राष्ट्रपति धरम को गंगाजल और उनकी पत्नी को बनारसी साड़ी गिफ्ट की।

इस विजिट में PM मोदी दोनों देशों के आर्थिक और सुरक्षा संबंधों को आगे बढ़ाने के लिए कई समझौतों पर हस्ताक्षर करेंगे। 2015 के बाद भारतीय PM की यह दूसरी मॉरीशस यात्रा है।

पीएम मोदी बोले- मॉरीशस से होली के रंग साथ लेकर जाऊंगा

मंगलवार शाम पीएम मोदी ने इंडियन डायस्पोरा को संबोधित किया। उन्होंने भोजपुरी में अपने भाषण की शुरुआत की। उन्होंने कहा, 'जब 10 साल पहले आज की ही तारीख पर मैं मॉरीशस आया था, उस साल होली एक हफ्ते पहले बीती थी, तब मैं भारत से फगवा की उमंग अपने साथ लेकर आया था। अब इस बार मॉरीशस से होली के रंग अपने साथ लेकर भारत जाऊंगा।'

पीएम मोदी ने कहा- 'राम के हाथे-ढोलक होसे, लक्ष्मण हाथ मंजीरा, भरत के हाथ कनक पिचकारी, शत्रुघन हाथ अबीरा... जोगी रा सा रा रा रा रा....'

मॉरीशस की मिट्‌टी में भारत के पूर्वजों का खून-पसीना

मंगलवार रात दिए भाषण में मोदी ने कहा कि यहां की मिट्टी में, हवा में, पानी में अपनेपन का एहसास है। गीत गवाई में, ढोलक की थाप में, दाल पूरी में, कुच्चा में और गातो पिमा में भारत की खुशबू है, क्योंकि यहां की मिट्टी में कितने ही भारतीयों का, हमारे पूर्वजों का खून-पसीना मिला हुआ है।

आपने मुझे सम्मान दिया, इसे मैं विनम्रता से स्वीकारता हूं। यह उन भारतीयों का सम्मान है जिन्होंने पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस धरती की सेवा की और मॉरीशस को इस ऊंचाई पर लेकर आए। मैं मॉरीशस के हर नागरिक और यहां की सरकार का इस सम्मान के लिए आभार व्यक्त करता हूं।

भारत के लिए क्यों खास है मॉरीशस

भारत को घेरने और हिंद महासागर में अपना दबदबा बढ़ाने के लिए चीन ने पाकिस्तान के ग्वादर, श्रीलंका के हंबनटोटा से लेकर अफ्रीकी देशों में कई पोर्ट प्रोजेक्ट में पैसा लगाया है। इसके जवाब में भारत सरकार ने 2015 में हिंद महासागर में अपनी मौजूदगी बढ़ाने के लिए सिक्योरिटी एंड ग्रोथ फॉर ऑल इन द रीजन (सागर प्रोजेक्ट) शुरू किया था।

इसके तहत भारत ने मुंबई से 3,729 किमी दूर मॉरीशस के उत्तरी अगालेगा द्वीप पर मिलिट्री बेस के लिए जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाया है, इसमें रनवे, जेट्टी, विमान के लिए हैंगर शामिल हैं। यहां से भारत-मॉरीशस मिलकर पश्चिमी हिंद महासागर में चीन के सैन्य जहाजों और पनडुब्बियों पर नजर रख सकते हैं।

मॉरीशस में भारतीय मूल के लोग बहुसंख्यक

भारत से करीब 190 साल पहले एटलस नाम का जहाज 2 नवंबर 1834 को भारतीय मजदूरों को लेकर मॉरीशस पहुंचा था। इसकी याद में वहां 2 नवंबर अप्रवासी दिवस मनाया जाता है। एटलस से जो मजदूर मॉरीशस पहुंचे थे, उनमें 80 प्रतिशत तक बिहार से थे।

इन्हें गिरमिटिया मजदूर कहा जाता था यानी समझौते के आधार पर लाए गए मजदूर। इन्हें लाने का मकसद मॉरीशस को एक कृषि प्रधान देश के रूप में विकसित करना। अंग्रेज 1834 से 1924 के बीच भारत के कई मजदूरों को मॉरीशस ले गए। मॉरीशस जाने वालों में सिर्फ मजदूर नहीं थे।

ब्रिटिश कब्जे के बाद मॉरीशस में भारतीय हिंदू और मुस्लिम दोनों व्यापारियों का छोटा, लेकिन समृद्ध समुदाय भी था। यहां आने वाले अधिकांश व्यापारी गुजराती थे। 19वीं शताब्दी में कई ऐसे घटनाक्रम हुए, जिससे मजदूरों के वंशज जमीन खरीद सके। उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार आया है।

मॉरीशस की कुल आबादी में करीब 52% हिंदू हैं। यह देश अफ्रीका में सबसे अधिक प्रतिव्यक्ति आय वाले देशों में से एक है। मॉरीशस पर 1715 में फ्रांस ने कब्जा किया था। तब इसकी अर्थव्यवस्था विकसित हुई, जो चीनी के उत्पादन पर आधारित थी।

1803 से 1815 के दौरान हुए युद्धों में ब्रिटिश इस द्वीप पर कब्जा पाने में कामयाब हुए। भारतीय मूल के सर शिवसागर रामगुलाम की अगुआई में ही मॉरीशस को 1968 में आजादी मिली थी। राष्ट्रमंडल के तहत 1992 में यह गणतंत्र बना।

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जेलेंस्की 30 दिन के युद्धविराम के लिए तैयार

यूक्रेन वॉर खत्म करने को लेकर मंगलवार को अमेरिकी और यूक्रेनी अधिकारियों के बीच बैठक हुई। इसके बाद यूक्रेन ने अमेरिका के 30-दिन का युद्धविराम प्रस्ताव स्वीकार कर लिया है। इसकी पुष्टि यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की ने की।

सऊदी अरब के जेद्दाह में हुई बैठक में यूएस सेक्रेटरी ऑफ स्टेट मार्को रूबियो और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार माइक वॉल्ट्ज ने यूक्रेन से कई समझौते के प्रस्तावों पर चर्चा की। हालांकि, कब्जे वाले एरिया के मुद्दे पर यूक्रेनी अधिकारी किसी भी समझौते के लिए तैयार नहीं दिखे।

दरअसल रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन पूर्वी यूक्रेन के चार बड़े क्षेत्रों (डोनेट्स्क, लुहान्स्क, खेरसॉन, और जापोरीजिया) पर पूर्ण नियंत्रण चाहते हैं। रूस पहले ही यूक्रेन के 20% हिस्से पर कब्जा कर चुका है।

अमेरिका-यूक्रेन वार्ता में अहम फैसले

युद्धविराम हवा और समुद्री क्षेत्र को छोड़कर पूरे युद्धक्षेत्र पर लागू होगा।

वादे के अनुसार अमेरिका रूस को युद्धविराम के लिए मनाने का प्रयास करेगा।

यूक्रेन को अमेरिका से सैन्य सहायता और खुफिया जानकारी साझा करने की सुविधा मिलेगी।

अमेरिका और यूक्रेन के बीच रेयर मिनरल्स डील को जल्द से जल्द पूरा करने पर सहमति बनी।

जेलेंस्की ने ट्रम्प से बहस पर अफसोस जताया था

4 मार्च को यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की ने कहा था कि ट्रम्प के साथ पिछले हफ्ते उनकी बैठक उस तरह नहीं हुई जैसी होनी चाहिए थी। जेलेंस्की ने इसे अफसोसजनक बताया और कहा कि यूक्रेन खनिज समझौते के लिए तैयार है।

जेलेंस्की का बयान ऐसे वक्त आया था, जब ट्रम्प ने यूक्रेन को दी जाने वाली सैन्य मदद रोकने का ऐलान किया। इसमें ऐसी मदद जो अमेरिका से अभी तक यूक्रेन नहीं पहुंची थी, उसे भी रोक दिया गया था।

ट्रम्प ने जेलेंस्की को लेकर नाराजगी जताई थी

व्हाइट हाउस के एक अधिकारी के अनुसार रोकी गई मदद को तब तक बहाल नहीं किया जाएगा, जब तक राष्ट्रपति ट्रम्प को यह यकीन नहीं हो जाता कि यूक्रेनी राष्ट्रपति वास्तव में शांति चाहते हैं।

यूक्रेन की सैन्य मदद रोकने से कुछ घंटे पहले ट्रम्प ने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया था। उन्होंने कहा था कि,

जेलेंस्की नहीं चाहते कि जब तक उन्हें अमेरिका का समर्थन हासिल है, तब तक शांति हो। यह जेलेंस्की की तरफ से दिया गया सबसे खराब बयान है। अमेरिका इसे बर्दाश्त नहीं करेगा।


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पहले तारीफ की, अब झटका देने की तैयारी में ट्रंप! अमेरिका में पाकिस्तानियों की एंट्री पर लग सकता है प्रतिबंध

पाकिस्तान और अफगानिस्तान का लोगों का अमेरिका में दाखिल होना अब आसान नहीं होगा। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प कथित तौर पर सुरक्षा और जांच जोखिमों के कारण दोनों देशों पर यात्रा प्रतिबंध लगाने की योजना बना रहे हैं।

राष्ट्रपति ट्रंप ऐसे आदेश पर साइन कर सकते हैं जिससे अफगानिस्तान और पाकिस्तान के लोगों के अमेरिका में प्रवेश करने पर पाबंदी लग जाएगी। समाचार एजेंसी रॉयटर्स की रिपोर्ट के अनुसार, यह प्रतिबंध  अलगे सप्ताह से लागू हो सकता है।

गौरतलब है कि हाल ही में राष्ट्रपति ट्रंप ने एक आतंकी को पकड़वाने में पाकिस्तान और शहबाज सरकारी की तारीफ की थी।

अमेरिका की लिस्ट में कई देश शामिल

रिपोर्ट में कहा गया है कि ट्रंप प्रशासन ने देशों की सुरक्षा और जोखिमों की जांच के लिए सरकार की समीक्षा के आधार पर यात्रा प्रतिबंध के लिए एक लिस्ट तैयार की है। सूत्रों ने रॉयटर्स को बताया कि अन्य देश भी इस लिस्ट में हो सकते हैं, लेकिन उन्होंने किसी अन्य देश का नाम नहीं बताया।

अफगानिस्तान के लोगों के लिए अमेरिका में प्रवेश करना किसी सपने से कम नहीं है। शरणार्थी के रूप में या विशेष वीजा प्राप्त करने के लिए अफगानिस्तान को लोगों का अमेरिका विशेष जांच करता है।

अधर में लटकी हजारों अफगानों की जिंदगी

अमेरिका के इस प्रतिबंध से उन हजारों अफगानियों पर खतरा मंडरा सकता है, जिन्हें शरणार्थी के रूप में या विशेष आप्रवासी वीजा पर अमेरिका में पुनर्वास के लिए मंजूरी दी गई है। इन लोगों ने अपने देश में रहते हुए तालिबान के खिलाफ अमेरिका को लड़ने में मदद की थी। तालिबान शासन में उनकी जान को खतरा है।

बता दें कि अक्टूबर 2013 में अपने चुनावी अभियान के दौरान भी ट्रंप ने गाजा पट्टी, लीबिया, सोमालिया, सीरिया और यमन जैसे देश के लोगों को सुरक्षा के लिए खतरा बताया था।


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ट्रम्प बोले- 2 अप्रैल से भारत पर 100% टैरिफ लगाएंगे

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने 2 अप्रैल से भारत पर जैसा को तैसा टैरिफ लगाने का ऐलान किया है। उन्होंने कहा कि भारत हमसे 100% से ज्यादा टैरिफ वसूलता है, हम भी अगले महीने से ऐसा ही करने जा रहे हैं।

ये ऐलान उन्होंने बुधवार सुबह (भारतीय समय के मुताबिक) अमेरिकी संसद के जॉइंट सेशन में कही। उन्होंने रिकॉर्ड 1 घंटा 44 मिनट का भाषण दिया। अपने पिछले कार्यकाल में उन्होंने सिर्फ 1 घंटा भाषण दिया था।

ट्रम्प ने भाषण की शुरुआत अमेरिका इज बैक, यानी 'अमेरिका का दौर लौट आया है' से की। ट्रम्प ने कहा कि उन्होंने 43 दिन में जो किया है वह कई सरकारें अपने 4 या 8 साल के कार्यकाल में नहीं कर पाईं।

इसके अलावा ट्रम्प ने पाकिस्तान को शुक्रिया भी कहा। ट्रम्प ने कहा कि 2021 में अफगानिस्तान में आतंकियों ने 13 अमेरिकी सैनिकों की हत्या कर दी थी। उन्हें पकड़ने में पाकिस्तान सरकार ने मदद की।

राष्ट्रपति ट्रम्प के पहले भाषण की 10 अहम बातें…

1. जैसे को तैसा टैरिफ: 2 अप्रैल से जैसे को तैसा टैरिफ लागू होगा। दूसरे देश हम पर भारी टैरिफ और टैक्स लगाते हैं, अब हमारी बारी है। अगर कोई कंपनी अमेरिका में प्रोड्क्ट नहीं बना रही है तो उसे टैरिफ देना होगा।

2. यूक्रेन जंग: जेलेंस्की जल्द से जल्द यूक्रेन जंग खत्म करने को लेकर बातचीत के लिए आने को तैयार हैं। हमने रूस के साथ गंभीर बातचीत की है। हमें मॉस्को से मजबूत संकेत मिले हैं कि वे शांति के लिए तैयार हैं।

3. अप्रवासी मुद्दा: पिछले चार साल में 2.1 करोड़ लोग अवैध रूप से अमेरिका में घुसे हैं। हमारी सरकार ने अमेरिकी इतिहास में सबसे बड़ा बॉर्डर और इमिग्रेशन क्रैकडाउन शुरू किया है।

4. जो बाइडेन: बाइडेन अमेरिकी इतिहास के सबसे खराब राष्ट्रपति हैं। उनके कार्यकाल में हर महीने लाखों अवैध लोग देश में दाखिल हुए। उनकी नीतियों के चलते देश में महंगाई बढ़ी।

5. गोल्ड कार्ड वीजा: हम गोल्ड कार्ड वीजा सिस्टम लाने जा रहे हैं। यह ग्रीन कार्ड की तरह है, लेकिन उससे ज्यादा एडवांस है। इससे बड़ी संख्या में नौकरियां पैदा होंगी और कंपनियों को फायदा होगा।

6. पनामा नहर और ग्रीनलैंड: हम किसी भी तरह पनामा नहर पर कंट्रोल हासिल करेंगे। इसके साथ ही हम किसी भी तरह ग्रीनलैंड को अपने में शामिल करेंगे। हम वहां के लोगों की हिफाजत करेंगे।

7. इलॉन मस्क और DoGE: इलॉन मस्क के DoGE विभाग ने पिछली फेडरल सरकार के कई घोटालों को उजागर किया है। मस्क को ये विभाग बनाने की कोई जरूरत नहीं थी, लेकिन उन्होंने देश के लिए ऐसा किया।

8. फ्री स्पीच: हमने सरकारी सेंसरशिप पूरी तरह रोक दी है और अमेरिका में फ्री स्पीच वापस ले आए हैं। हमने ऐसे सरकारी तंत्र को खत्म कर दिया है जिसका इस्तेमाल हथियार के तौर पर किया जाता है।

9. तेल और गैस: अमेरिका के पास दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा 'लिक्विड गोल्ड' (तेल और गैस) है। हम अलास्का में बहुत बड़ी प्राकृतिक गैस पाइपलाइन बिछाएंगे। इसमें कई देश अरबों रुपए निवेश करना चाहते हैं।

10. स्पेस प्रोगाम: हम विज्ञान की नई सीमाओं को पार करेंगे, इंसान को अंतरिक्ष में आगे ले जाएंगे और मंगल ग्रह पर अमेरिकी झंडा फहराएंगे। हम दुनिया की सबसे उन्नत और शक्तिशाली सभ्यता का निर्माण करेंगे।


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अमेरिका में बसने का ट्रंप का ऑफर, पेश किया 50 लाख डॉलर का 'गोल्ड कार्ड', EB-5 वीजा प्रोग्राम की लेगा जगह

अगर आप अमीर हैं और अमेरिका की नागरिकता लेना चाहते हैं, तो ट्रंप आपका स्वागत करने को तैयार हैं। जी हां, ऐसा ही है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने मंगलवार को अमीर आप्रवासियों के लिए गोल्ड कार्ड पेश किया है, जिसे 50 लाख डॉलर में खरीदा जा सकता है। ट्रंप ने इसे अमेरिकी नागरिकता का रास्ता बताया। ट्रंप ने गोल्ड कार्ड को मौजूदा आप्रवासी निवेशक वीजा कार्यक्रम EB-5 के विकल्प के लिए रूप में प्रस्तावित किया है और कहा कि भविष्य में 10 लाख गोल्ड कार्ड बेचे जाएंगे।

ट्रंप ने कहा कि वे ईबी-5 आप्रवासी निवेशक वीजा कार्यक्रम को गोल्ड कार्ड के साथ बदल देंगे जो बड़ी रकम वाले विदेशी निवेशकों को अमेरिकी नौकरियों का सृजन या संरक्षण करने के लिए स्थायी निवासी बनने की अनुमति देता है। उन्होंने दावा किया कि इस पहल से राष्ट्रीय कर्ज का भुगतान जल्द हो सकता है।

ग्रीन कार्ड के लाभ के साथ नागरिकता भी

मंगलवार को वाणिज्य मंत्री हॉवर्ड लुटनिक के साथ कार्यकारी आदेशों पर हस्ताक्षर करते हुए ट्रंप ने कहा, 'हम एक गोल्ड कार्ड बेचने जा रहे हैं। हम उस कार्ड की कीमत लगभग 50 लाख डॉलर रखने जा रहे हैं।' उन्होंने आगे बताया कि 'यह आपको ग्रीन कार्ड का विशेषाधिकार प्रदान करेगा और साथ ही यह (अमेरिकी) नागरिकता का मार्ग भी बनेगा। अमीर लोग इस कार्ड को खरीदकर हमारे देश में आएंगे।' ट्रंप ने कहा कि नई योजना के बारे में विस्तार से जानकारी जल्द ही आएगी।

क्या है EB-5 कार्यक्रम जिसे बदलने जा रहे ट्रंप?

USCIS वेबसाइट के अनुसार, ईबी-5 अप्रवासी निवेशक कार्यक्रम की स्थापना 1990 में कांग्रेस ने 'विदेशी निवेशकों द्वारा रोजगार सृजन और पूंजी निवेश के माध्यम से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करने' के लिए की थी। इस कार्यक्रम का संचालन अमेरिकी नागरिकता और आव्रजन सेवा (यूएससीआईएस) करती है।

USCIS के अनुसार, EB-5 कार्यक्रम के तहत निवेशक, उनके जीवनसाथी और 21 वर्ष से कम उम्र के अविवाहित बच्चे स्थायी निवास के लिए पात्र हैं। अगर वे गैर-लक्षित रोजगार क्षेत्र (TEA) परियोजना में 18 लाख डॉलर या TEA परियोजना में कम से कम 800,000 डॉलर का निवेश करते हैं। निवेशक को योग्य अमेरिकी श्रमिकों के लिए कम से कम 10 स्थायी, पूर्णकालिक नौकरियां भी बनानी या बनाए रखनी चाहिए।






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UN में यूक्रेन को छोड़ रूस के साथ खड़ा हो गया अमेरिका, भारत ने बढ़ाई मतदान से दूरी

 रूस और यूक्रेन के बीच जारी संघर्ष को लेकर अमेरिका ने अपनी नीतियों में परिवर्तन करते हुए संयुक्त राष्ट्र में रूस का साथ दिया है। अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के मसौदा प्रस्ताव पर रूस का साथ दिया, जिसमें तनाव कम करने, शत्रुता को जल्द खत्म करने और यूक्रेन में युद्ध का शांतिपूर्ण समाधान करने का एलान किया गया।

यूरोपीय संघ की ओर से रूस के हमले की निंदा से जुड़ा प्रस्ताव पेश किया गया था। इस प्रस्ताव ने बदलती हुई वैश्विक राजनीति को दिखाया है। इस प्रस्ताव पर जब मतदान की जरूरत पड़ी तो अमेरिका ने अपनी विदेश नीति में बड़ा बदलाव करते हुए रूस के साथ खड़े होने की घोषणा की।

यूक्रेन के खिलाफ अमेरिका

इस प्रस्ताव के खिलाफ अमेरिका ने वोट दिया और यूक्रेन का विरोध किया। ट्रंप का ये फैसला यूरोप के साथ उनके बढ़ते मतभेद और पुतिन के साथ उनकी करीबी को दिखाता है। वहीं इस मतदान के दौरान भारत ने अपने आप को मतदान से अलग रखा। 

भारत ने मतदान से बनाई दूरी

भारत शांति का समर्थन करने की नीति पर चलता है। उसने इस प्रस्ताव से दूरी बनाई। 65 देशों ने मतदान से परहेज किया। पहले भी रूस विरोधी प्रस्तावों पर भारत का यही रुख रहा है। भारत दोनों पक्षों के बीच संवाद और कूटनीति को फिर से शुरू करने की वकालत करता है।

क्या है चीन का रुख?

चीन ने इस मतदान में हिस्सा नहीं लिया। भारत, चीन और ब्राजील सहित 65 देशों ने वोटिंग में हिस्सा ही नहीं लिया। रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर बीते 3 बरसों में अमेरिका हमेशा यूरोपीय देशों के साथ मतदान करता था। यह पहली बार है जब उसने अलग रास्ता चुना है। अमेरिका में आया यह बदलाव यूरोपीय पक्ष से अलग होने का संकेत देता है। यह अमेरिकी नीति में एक बड़ा बदलाव भी दर्शाता है।

ट्रंप और पुतिन की बढ़ी नजदीकियां

डोनाल्ड ट्रंप ने रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से सीधे बातचीत शुरू कर दी है।

ट्रंप का फोकस यूक्रेन से 500 बिलियन डॉलर मूल्य की दुर्लभ खनिजों की डील करने पर है, ताकि अमेरिका द्वारा युद्ध में खर्च की गई राशि की भरपाई हो सके।

इसके अलावा, हाल ही में सऊदी अरब में रूस और अमेरिका के बीच एक अहम बैठक हुई, जिसमें यूक्रेन को आमंत्रित नहीं किया गया।

इससे यह साफ होता है कि अमेरिका अब रूस से सीधे संवाद करने की रणनीति अपना रहा है और यूक्रेन को दरकिनार किया जा रहा है।


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