भारत को झटका दे सकता है रूस के खिलाफ लाया गया अमेरिकी बिल

अमेरिका में एक बिल पेश किया गया है, जिसमें कहा गया है कि रूस से तेल या गैस खरीदने वाले देशों पर 500% तक का शुल्क लगाने का प्रस्ताव है। इस पर भारत की तरफ से पहले ही अमेरिकी नेताओं से बातचीत की जा चुकी है। इस बीच विदेश मंत्री एस जयशंकर ने इस बिल को लेकर बड़ा बयान दिया है।

भारतीय विदेश मंत्री ने अमेरिका के विवादित रूस संबंधी बिल को लेकर साफ कहा है कि अगर यह भारत के हितों को प्रभावित करता है, तो उस स्थिति में निपटा जाएगा। उन्होंने कहा कि भारत इस बिल को लेकर पूरी तरह से सतर्क हे।

जयशंकर का बयान

जयशंकर ने कहा, "जो भी चीज हमारे हितों को प्रभावित कर सकती है, वो हमारे लिए मायने रखती है।" उन्होंने बताया कि भारतीय दूतावास और अमेरिका में भारत के राजदूत लगातार अमेरिकी सांसद लिंडसे ग्राहम के संपर्क में हैं। भारत की ऊर्जा और रणनीतिक जरूरतों को अमेरिकी पक्ष के सामने रखा गया है।

जयशंकर ने कहा, हमने अपनी ऊर्जा, "सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं को उनके साथ साझा किया है। अगर ऐसी कोई स्थिति आती है, तो हम उसका सामना करेंगे।"

अमेरिका का बिल

अमेरिकी सीनेटर लिंडसे ग्राहम द्वारा लाए गए इस प्रस्तावित बिल में कहा गया है कि रूस से तेल, गैस, यूरेनियम या अन्य वस्तुएं खरीदने वाले किसी भी देश से अमेरिका 500 प्रतिशत का टैरिफ वसूलेगा।

यह बिल अमेरिकी संसद में काफी मजबूत स्थिति में है और इसे 80 सीनेटरों का समर्थन प्राप्त है। इस स्थिति में यह बिल राष्ट्रपति की वीटो शक्ति को भी पार कर सकता है।


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भारत-अमेरिका के बीच ट्रेड डील को लेकर उलझन खत्म, 48 घंटों के भीतर होगा बड़ा समझौता

भारत और अमेरिका के बीच एक अंतरिम व्यापार समझौते को अगले 48 घंटों में अंतिम रूप दिए जाने की संभावना है। इस डील को लेकर दोनों देशों के बीच वाशिंगटन में बातचीत का दौर जारी है।

भारत के व्यापार प्रतिनिधि समझौते को लेकर दोनों देशों के बीच मतभेदों को दूर करने के लिए अभी कुछ और दिन वाशिंगटन में रहेंगे। 9 जुलाई से पहले दोनों देश ट्रेड डील करना चाहते हैं, क्योंकि इसके बाद अमेरिकी राष्ट्रपति भारत से अमेरिका आने वाले सामानों पर हाई टैरिफ लगाना शुरू कर देंगे।

किस व्यापार समझौते पर बन सकती है बात?

अमेरिका भारतीय कृषि और डेयरी क्षेत्रों के लिए अधिक बाजार पहुंच के लिए दबाव डाल रहा है। हालांकि, ग्रामीण आजीविका और खाद्द सुरक्षा चिंताओं के कारण नई दिल्ली के लिए यह क्षेत्र लंबे समय से रेड लाइन बना हुआ है। भारत के लिए इस पर समझौता करना बेहद मुश्किल है।

रॉयटर्स ने सूत्रों के हवाले से रिपोर्ट छापी है कि भारत के व्यापार प्रतिनिधि प्रमुख कृषि और डेयरी मुद्दों पर समझौता नहीं करेंगे। उन्होंने कहा कि अमेरिका में उगाए गए जेनेटकली मॉडिफाइड या हाइब्रिड मक्का, सोयाबीन, चावल और गेहूं पर भारत के अंदर टैरिफ कम करना अस्वीकार्य है।

ट्रंप ने टैरिफ का किया था एलान

बता दें, इसी साल 2 अप्रैल को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 'लिबरेश डे' करार देते हुए तमाम देशों पर रेसिप्रोकल टैरिफ लगाने का एलान किया था। ट्रंप ने अमेरिका में आने वाले सामानों पर 26 प्रतिशत टैरिफ लगाने की धमकी दी थी।

हालांकि, ट्रंप ने फिर व्यापार समझौते पर बातचीत के लिए समय निकालने दिया और टैरिफ को अस्थायी रूप से 10% तक कम कर दिया गया था। इस बीच भारत और अमेरिका के बीच बहुत जल्द व्यापार समझौता होगा, इसे लेकर ट्रंप ने भी बात कही थी।

भारत में अमेरिकी कंपनियों को कैसे मिलेगी मदद?

उन्होंने एअरफोर्स वन पर रिपोर्टरों से बात करते हुए कहा था कि वह भारत के साथ एक समझौते पर पहुंच सकते हैं जो दोनों देशों के लिए टैरिफ में कटौती करेगा और अमेरिकी कंपनियों को भारत के 1.4 बिलियन उपभोक्ताओं के बाजार में कंपीट करने में मदद करेगा।


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भारत-अमेरिका के बीच ट्रेड डील पर आया सरकार का पहला रिएक्शन, निर्मला सीतारमण ने कहा - लागू होगी शर्त

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में भारत के साथ ट्रेड डील को लेकर बयान दिया था. उन्होंने कहा था कि जल्द ही भारत के साथ व्यापारिक समझौता होने वाला है. इस मामले पर केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने प्रतिक्रिया दी है. उन्होंने अमेरिका के साथ ट्रेड डील के मामले पर सरकार के रुख को साफ कर दिया है. वित्त मंत्री ने कहा है कि भारत, अमेरिका के साथ अच्छा समझौता जरूर करना चाहेगा, लेकिन इसको लेकर कुछ शर्तें भी होंगी.

वित्त मंत्री सीतारमण ने कहा है कि भारत में एग्रीकल्चर और डेयरी सेक्टर के लिए अभी निश्चित सीमाएं हैं. इस पर विचार जरूरी है. सीतारमण से डोनाल्ड ट्रंप के बयान को लेकर सवाल किया गया. उन्होंने अमेरिका के साथ ट्रेड डील पर जवाब देते हुए कहा, ''हां क्यों नहीं, हम अच्छा समझौता करना चाहेंगे.'' 

क्या भारत-अमेरिका के बीच ट्रेड डील पर बन गई है सहमति

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने हाल ही में कहा था कि भारत और अमेरिका के बीच ट्रेड डील को लेकर स्थिति 8 जुलाई तक पूरी तरह साफ हो जाएगी. ट्रंप के मुताबिक, भारत-अमेरिका के बीच ट्रेड डील में आ रही सभी रुकावटें जल्द ही दूर हो सकती हैं. समझौते में आईटी, मैन्युफैक्चरिंग और सर्विसेज के साथ-साथ ऑटोमोबाइल सेक्टर भी शामिल हो सकता है. भारत और अमेरिका के बीच ट्रेड डील को लेकर अभी तक पूरी स्थिति साफ नहीं है. इसको लेकर जल्द ही अपडेट मिल सकता है.

भारत के लिए क्यों जरूरी है ट्रेड डील

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने यह भी बताया कि भारत के लिए अमेरिका के साथ ट्रेड डील क्यों जरूरी है. फाइनेंशियल एक्सप्रेस को दिए इंटरव्यू में सीतारमण ने कहा, "हम जिस मोड़ पर हैं और जिस हिसाब से हमारा लक्ष्य है, उस हिसाब से जितनी जल्दी हम मजबूत अर्थव्यवस्थाओं के साथ ऐसे समझौते करेंगे, उतना ही वे हमारे लिए बेहतर होंगे."


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न्यूयॉर्क के पहले भारतीय मूल के मेयर बनेंगे जोहरान ममदानी

भारतीय मूल के अमेरिकी नेता जोहरान ममदानी डेमोक्रेट पार्टी की तरफ से मेयर उम्मीदवार बनने की रेस में आगे निकल गए हैं। प्राइमरी चुनाव का अंतिम परिणाम जुलाई में रैंक्ड‑चॉइस की अंतिम गिनती के बाद आएगा।

हालांकि, जोहरान का डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ से मेयर उम्मीदवार बनना लगभग तय है। नवंबर में मेयर पद के जनरल चुनाव में भी उनकी जीत लगभग तय मानी जा रही है। अगर ममदानी मेयर चुनाव जीतते हैं, तो वे न्यूयॉर्क टाउन के इतिहास में पहले मुस्लिम, भारतीय मूल के मेयर बन जाएंगे।

पॉलिटिक्स से पहले म्यूजिक में आजमाया हाथ

ममदानी हिप-हॉप के फैन हैं और वो रैप म्यूजिक कंपोज और प्रोड्यूस कर चुके हैं। 2016 में एक युगांडन रैपर के साथ वो रैप म्यूजिक वीडियो बना चुके हैं। इसके अलावा 2019 में अपना सिंगल भी रिलीज कर चुके हैं।

राजनीति में कदम रखने से पहले वो क्वीन्स में रहने वाले गरीब व्हाइट्स के लिए कई केस लड़ चुके हैं। इनमें ज्यादातर मामले घर खाली कराने के होते थे जिसमें ममदानी ने लोगों की उनके घर बचाने में मदद की थी। इसी के बाद वो राजनीति में आने के लिए मोटीवेट हुए।

वो 2015 से न्यूयॉर्क की राजनीति में सक्रिय हैं। 2017 में वो डेमोक्रैटिक सोशलिस्ट ऑफ अमेरिका से जुड़े। दो साल बाद, 2020 में वे पहली बार न्यूयॉर्क स्टेट असेंबली के चुनाव में क्वींस के एस्टोरिया से जीते थे। वे क्वींस के एस्टोरिया और आसपास के इलाकों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

एक डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट के तौर पर उन्होंने एक पायलट प्रोग्राम शुरू किया है। इस प्रोग्राम के तहत शहर की कुछ बसें एक साल के लिए मुफ्त कर दी गई हैं। उन्होंने एक कानून भी प्रस्तावित किया है। इस कानून के तहत गैर-लाभकारी संस्थाओं को इजराइली बस्तियों का समर्थन करने से रोका जाएगा।

2018 में मिली अमेरिकी नागरिकता

जोहरान की मां मीरा नायर भारतीय मूल की अमेरिकी नागरिक और हिंदू वंशज की हैं। उनके पिता महमूद ममदानी भारतीय मूल के युगांडा नागरिक और मुस्लिम हैं। महमूद कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं।जोहरान का जन्म 18 अक्टूबर 1991 को युगांडा के कंपाला में हुआ था।

जब वे पांच साल के थे, तब उनका परिवार दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन चला गया। जब ममदानी सात साल के थे, तब परिवार न्यूयॉर्क शिफ्ट हो गया। जोहरान ने 2014 में मेन के बोडोइन कॉलेज से अफ्रीकाना स्टडीज में स्नातक की ली थी।

इस साल की शुरुआत में जोहरान ने 27 साल की सीरियाई आर्टिस्ट रामा दुवाजी से शादी की। रामा एक इलस्ट्रेटर और एनिमेटर हैं। उनका काम द न्यू यॉर्कर, द वॉशिंगटन पोस्ट और वाइस जैसे बड़े पब्लिकेशन में छप चुका है।


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चीन को झटका देने की तैयारी में भारत-श्रीलंका, दोनों के बीच होने जा रही बड़ी डील

 भारत और श्रीलंका की दो शिपबिल्डिंग कंपनियों के बीच बड़ी साझेदारी होने जा रही है। मझगांव डॉक शिपबिल्डर्स लिमिटेड (MDL) ने कोलंबो डॉकयार्ड पीएलसी (CDPLC) में निर्णायक हिस्सेदारी खरीदने की घोषणा की है। MDL 53 मिलियन डॉलर (439 करोड़ रुपए) में CDPLC के शेयर्स खरीदने वाली है।

MDL और CDPLC के बीच होने वाली यह डील चीन के लिए चिंता का सबब बन सकती है। हिंद महासागर में अपनी पैठ जमाने के लिए चीन ने श्रीलंका का हम्बनटोटा पोर्ट लीज पर लिया था। मगर, अब भारतीय शिपबिल्डिंग कंपनी का श्रीलंका में कदम रखना ड्रैगन के लिए परेशानी खड़ी कर सकता है।

क्यों खास है डील?

बता दें कि CDPLC को बेस्ट शिपबिल्डिंग इंडस्ट्रियों में गिना जाता है। यह कंपनी जापान, नार्वे, फ्रांस, भारत, संयुक्त अरब अमीरात समेत अफ्रीका के कई देशों के लिए टैंकर, गश्ती जहाज और केबल बिछाने वाली शिप बना चुकी है। वहीं, MDL की बात करें तो यह कंपनी पनडुब्बियां समेत कई तरह के शिप बनाती है। यह पहली बार है जब कोई भारतीय शिपबिल्डिंग कंपनी ने देश के बाहर किसी अन्य कंपनी की हिस्सेदारी खरीदने का फैसला किया है।

इस डील पर बात करते हुए मझगांव डॉक के निदेशक कैप्टन जगनमोहन ने कहा-

यह डील एक गेटवे साबित होगी। इससे दक्षिण एशिया की शिपबिल्डिंग पर MDL की पकड़ मजबूत होगी। यह वैश्विक शिपयार्ड कंपनी बनने की तरफ अहम कदम होगा।

MDL दो हिस्सों में खरीदेगा शेयर

बता दें कि MDL दो अलग-अलग भागों में CDPLC के शेयर खरीदेगी। वर्तमान में CDPLC के ज्यादातर शेयर ओनोमिच डॉकयार्ड कंपनी लिमिटेड के पास हैं। ऐसे में MDL कुछ शेयर ओनोमिच से खरीदेगी। इसी के साथ CDPLC कुछ नए शेयर भी जारी करेगी, जो MDL के हिस्से में जाएंगे।

चीन को क्यों लगेगा झटका?

मझगांव डॉक शिपबिल्डर्स लिमिटेड (MDL) भारत में पहले ही 6 स्कॉर्पियन या कलवरी क्लास पनडुब्बियां बना चुकी हैं। इसके अलावा MDL को 3 और स्कार्पियन क्लास पनडुब्बियां बनाने का ऑर्डर मिला है। साथ ही MDL जर्मनी की कंपनी थाइसनक्रुप मरीन सिस्टम के साथ मिलकर भारतीय नौसेना के लिए स्टेल्श डीजल इलेक्ट्रिक पनडुब्बी बनाने का मेगा प्रोजेक्ट हासिल करने की रेस में शामिल है। इस प्रोजेक्ट की कीमत 70,000 करोड़ रुपए आंकी जा रही है। जाहिर है MDL की श्रीलंका में मौजूदगी चीन के हिंद महासागर पर कब्जा करने के सपनों पर पानी फेर सकता है।


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भारत-अमेरिका के बीच होने वाली है बहुत बड़ी ट्रेड डील, ट्रंप ने दिए संकेत

भारत और अमेरिका के बीच बहुत बड़ी डील होने वाली है. यह समझौता व्यापार को लेकर हो सकता है. खुद अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस समझौते को लेकर संकेत दिए हैं. ट्रंप ने कहा, आने वाले समय में हमारी भारत के साथ डील होने वाली है. जोकि एक बड़ी डील होगी.

भारत और अमेरिका के बीच बड़ी डील होने वाली है. अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस बात के संकेत दिए हैं. भारत और अमेरिका के बीच एक बड़ी ट्रेड डील बहुत जल्द होने वाली है. ट्रंप ने बिग ब्यूटीफुल बिल कार्यक्रम में बोलते हुए यह बात सबके सामने रखी है.

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने गुरुवार को कहा कि अमेरिका ने चीन के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं. चीन के साथ एक डील डन होने की बात बताने के बाद ही ट्रंप ने इस बात के संकेत दिए कि भारत के साथ एक “बहुत बड़ा” समझौता जल्द ही होगा.

भारत-US के बीच होने वाली है बड़ी डील

ट्रंप ने अपनी स्पीच में कहा, हर कोई एक डील करना चाहता है और उसका हिस्सा होना चाहता है. हमने कल ही चीन के साथ एक डील पर हस्ताक्षर किए हैं. हम कुछ बड़े समझौते कर रहे हैं. इसी के बाद हम एक डील शायद भारत के साथ कर रहे हैं. इस डील के बारे में बात करते हुए ट्रंप ने कहा, हम भारत के साथ बहुत बड़ी डील कर रहे हैं.

“भारत के लिए खोलने जा रहे दरवाजे”

इसी के साथ ट्रंप ने आगे कहा, किसी भी दूसरे देश के साथ डील नहीं की जाएगी. हम हर किसी के साथ डील नहीं करने जा रहे हैं. ट्रंप ने कहा, लेकिन हम कुछ बेहतरीन डील कर रहे हैं. हमारे पास एक डील भारत के साथ सामने आने वाली है. यह बहुत बड़ा सौदा है. जहां हम भारत के लिए दरवाजे खोलने जा रहे हैं, वहीं चीन समझौते में हम चीन के लिए दरवाजे खोलने की शुरुआत कर रहे हैं.

चीन-US के बीच क्या डील हुई?

हालांकि, ट्रंप ने इस बात को लेकर जानकारी नहीं दी कि वो चीन के साथ क्या डील करने जा रहे हैं. किस चीज को लेकर यह डील हुई है. बाद में व्हाइट हाउस के एक अधिकारी ने चीन से अमेरिका तक दुर्लभ पृथ्वी शिपमेंट (rare earth shipments ) में तेजी लाने पर केंद्रित समझौते की पुष्टि की.

बड़ी ट्रेड डील की आहट

इस महीने की शुरुआत में, यूएस-इंडिया स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप फोरम में बोलते हुए, अमेरिकी वाणिज्य सचिव हॉवर्ड लुटनिक ने कहा था कि भारत और अमेरिका के बीच एक व्यापार समझौते को जल्द ही अंतिम रूप दिया जा सकता है. उन्होंने कहा था, मुझे लगता है कि हम इसके बहुत करीब आ गए हैं और आपको आने वाले भविष्य में अमेरिका और भारत के बीच एक समझौते की उम्मीद करनी चाहिए.


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पाकिस्तानी टेररिज्म, ऑपरेशन सिंदूर, सीमा विवाद,राजनाथ सिंह और चीनी रक्षा मंत्री की इन मुद्दों पर हुई बात

रत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह चीन के किंगदाओ में शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन (SCO) के सम्मेलन में शामिल होने पहुंचे थे। इस दौरान राजनाथ सिंह ने अपने चीनी समकक्ष एडमिरल डोंग जून के साथ 26 जून को द्विपक्षीय बैठक भी की।

रक्षा मंत्री ने द्विपक्षीय संबंधों में सामान्य स्थिति की झलक को वापस लाने के लिए दोनों पक्षों द्वारा किए जा रहे काम को स्वीकार किया। उन्होंने स्थायी और डी-एस्केलेशन के एक संरचित रोडमैप के माध्यम से जटिल मुद्दों को हल करने की आवश्यकता पर भी प्रकाश डाला।

भारत-चीन सीमा विवाद सुलझाने के लिए राजनाथ सिंह के सुझाव...

विघटन प्रक्रिया का पालन पूरी तरह से हो।

बॉर्डर पर तनाव कम करने की कोशिश होनी चाहिए।

सीमाओं के सीमांकन और डीलिमिटेशन के टारगेट को हासिल करने के लिए सीमा विवाद को हल करने की प्रक्रिया में तेजी लाने की जरूरत है।

संबंधों को बेहतर करने और मतभेदों को खत्म करने के लिए नई प्रक्रियाओं को तैयार करने के लिए मौजूदा एसआर स्तर की व्यवस्था का उपयोग किया जाना चाहिए।

राजनाथ सिंह का पोस्ट

चीन के रक्षा मंत्री के साथ मुलाकात के बाद राजनाथ सिंह ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर पोस्ट कर लिखा, "चीन के किंगदाओ में SCO रक्षा मंत्रियों की बैठक के दौरान चीन के रक्षा मंत्री एडमिरल जनरल डोंग जून के साथ बातचीत हुई।"

उन्होंने लिखा, "हमने द्विपक्षीय संबंधों से जुड़े मुद्दों पर रचनात्मक और दूरदर्शी विचारों का आदान-प्रदान किया।" इसके साथ ही रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने करीब 6 साल के अंतराल के बाद कैलाश मानसरोवर की यात्रा को फिर से शुरू करने पर अपनी खुशी जाहिर की।

ऑपरेशन सिंदूर की दी जानकारी

राजनाथ सिंह ने दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंधों की स्थापना के 75 साल तक पहुंचन के महत्वपूर्ण मील के पत्थर पर भी प्रकाश डाला। साथ ही, भारतीय रक्षा मंत्री ने 22 अप्रैल 2025 को पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले को लेकर भी चीनी रक्षा मंत्री को जानकारी दी और भारत के ऑपरेशन सिंदूर के उद्देश्य को भी बताया।


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जंग खत्म होने के बाद ईरान को इजरायल का अल्टीमेटम- यूरेनियम लौटाओ

इजरायल के रक्षा मंत्री इजरायल काट्ज ने कहा है कि ईरान को खतरनाक स्तर तक संवर्धित (एनरिच) किए गए यूरेनियम को वापस करना होगा. ये वही यूरेनियम है जिससे परमाणु बम बनाया जाता है. काट्ज ने साफ कहा कि अमेरिका और इजरायल की ओर से ईरान को संयुक्त रूप से यह संदेश दिया गया है कि उसे अपना एनरिच यूरेनियम सौंपना होगा.

ईरान के पास परमाणु बम नहीं

काट्ज ने एक इंटरव्यू में कहा कि इजरायल ने हाल ही में ईरान पर जो हमले किए हैं, उनका मकसद उसकी परमाणु क्षमता को कमजोर करना था. उन्होंने दावा किया कि अब ईरान के पास ऐसा कोई तरीका नहीं बचा है जिससे वह यूरेनियम को परमाणु बम के लिए ठोस रूप में बदल सके, क्योंकि उस ट्रांसफर फैसिलिटी को भी नष्ट कर दिया गया है.

इजरायल को नहीं पता ईरान का पूरा यूरेनियम भंडार कहां है?

रक्षा मंत्री काट्ज ने यह भी माना कि इजरायल को इस बात की जानकारी नहीं है कि ईरान ने अपना पूरा एनरिच यूरेनियम कहां छिपा रखा है. इससे यह चिंता और बढ़ गई है कि ईरान कहीं गुप्त रूप से अपनी परमाणु तैयारी तो नहीं कर रहा. यूरोप के खुफिया विशेषज्ञों का मानना है कि ईरान के मुख्य परमाणु केंद्रों पर हुए अमेरिकी हमलों के बावजूद उसका संवर्धित यूरेनियम भंडार अब भी काफी हद तक सुरक्षित है.

रिपोर्ट में बताया गया कि फोर्डो के पास अमेरिकी हमले से पहले ट्रकों की हलचल देखी गई थी, जिससे शक है कि ईरान ने यूरेनियम पहले ही वहां से हटा लिया था. यूरोपीय देशों का यह भी मानना है कि ईरान के पास करीब 408 किलोग्राम हाई-ग्रेड यूरेनियम मौजूद है, जो हथियार बनाने के लिए काफी है और हाल ही में फोर्डो केंद्र में मौजूद नहीं था.

खामेनेई को मारना चाहता था इजरायल

इजरायल के रक्षा मंत्री इजरायल काट्ज ने एक बड़ा खुलासा करते हुए कहा है कि ईरान से हालिया संघर्ष के दौरान इजरायली सेना की योजना ईरान के सर्वोच्च नेता अली खामेनेई को मारने की थी. हालांकि उन्होंने यह भी माना कि युद्ध के दौरान ऐसा कोई अवसर नहीं मिला जिससे इस योजना को अंजाम दिया जा सके.

क्या अमेरिका से ली थी अनुमति?

जब काट्ज से पूछा गया कि क्या इस तरह की कार्रवाई के लिए इजरायल ने अमेरिका से अनुमति ली थी, तो उन्होंने साफ कहा कि ऐसे मामलों में इजरायल को किसी की इजाजत की जरूरत नहीं होती. उन्होंने बताया कि खामेनेई को निशाना बनाने का फैसला पहले ही कर लिया गया था, लेकिन जैसे ही वे एक सुरक्षित बंकर में छिप गए, उन्हें ढूंढ पाना मुश्किल हो गया और कार्रवाई नहीं हो सकी.


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ब्राजील में BRICS समिट में शामिल नहीं होंगे शी जिनपिंग

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग अगले हफ्ते ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में होने वाले BRICS समिट में भाग नहीं लेंगे। साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट (SCMP) की रिपोर्ट के मुताबिक, चीन ने राष्ट्रपति के बिजी शेड्यूल का हवाला देते हुए ब्राजील को इसकी जानकारी दी है।

ब्राजील में 6-7 जुलाई को 17वां BRICS समिट होने वाला है। इसमें ब्राजीलियन राष्ट्रपति लुइज इनासियो लूला डी सिल्वा ने PM नरेंद्र मोदी को स्टेट डिनर पर बुलाया है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि चीनी राष्ट्रपति इससे नाराज हैं। जिनपिंग को लग रहा है कि मोदी के सामने उन्हें कम तवज्जो मिलेगी।

शी जिनपिंग के बतौर राष्ट्रपति 12 सालों के कार्यकाल में ऐसा पहली बार होगा, जब वे BRICS समिट में नहीं जाएंगे। 2013 से वे हर साल समिट में शामिल हुए हैं। कोविड महामारी के दौरान, उन्होंने दो साल BRICS में वर्चुअली भाग लिया था।

जिनपिंग की जगह चीनी प्रधानमंत्री ब्राजील जाएंगे

SCMP के मुताबिक, BRICS समिट में चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग की जगह अब प्रधानमंत्री ली कियांग देश का प्रतिनिधित्व करेंगे। उन्होंने 2023 में भी जिनपिंग की जगह भारत में G20 समिट में भाग लिया था।

हालांकि, चीन की तरफ से अभी कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं की गई है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गुओ जियाकुन ने ब्राजील के अखबार फोल्हा से कहा कि सही समय आने पर इसकी जानकारी दी जाएगी।

शी जिनपिंग के समिट में भाग न लेने की रिपोर्ट्स पर ब्राजील के विदेश मंत्रालय ने कहा कि वह विदेशी प्रतिनिधिमंडलों के आंतरिक फैसलों पर टिप्पणी नहीं करेगा। हालांकि, बैठक से करीब 10 दिन पहले चीनी राष्ट्रपति के इस फैसले से ब्राजील के नाराज होने की खबरें हैं।

मई 2025 में ब्राजीलियन राष्ट्रपति से मिले थे जिनपिंग

SCMP ने चीनी अधिकारियों के हवाले से बताया कि जिनपिंग पहले ही एक साल से भी कम समय में दो बार ब्राजील के राष्ट्रपति लूला डी सिल्वा से मिल चुके हैं। इसलिए, उनका मानना है कि BRICS समिट में उनका जाना उतना जरूरी नहीं है।

जिनपिंग नवंबर, 2024 में दक्षिण अमेरिकी देश में G20 समिट और फिर मई, 2025 में बीजिंग में चीन-सेलाक फोरम में ब्राजील के राष्ट्रपति से मिले थे।

BRICS क्या है?

ब्रिक्स (BRICS) पांच प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले देश- ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका का एक ग्रुप है। इसका मकसद इन देशों के बीच आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक सहयोग को बढ़ावा देना है।

ब्राजील, रूस, भारत और चीन ने 2009 में ब्रिक्स की स्थापना की थी। दक्षिण अफ्रीका को 2010 में शामिल हो गया। इस ग्रुप में मिस्र, इथियोपिया, ईरान, इंडोनेशिया और यूएई को पूर्ण सदस्य के रूप में जोड़ा गया है।

बेलारूस, बोलीविया, कजाकिस्तान, क्यूबा, मलेशिया, नाइजीरिया, थाईलैंड, युगांडा और उज्बेकिस्तान को पार्टनर देशों के रूप में BRICS में शामिल किया गया है।


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यूरोपीय देश अपना रक्षा खर्च GDP का 5% तक बढ़ाएंगे

यूरोपियन देश अगले 10 साल में अपना रक्षा खर्च GDP का 5% तक बढ़ाएंगे। नीदरलैंड्स के द हेग शहर में हुई NATO समिट में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने यूरोपीय देशों से रक्षा खर्च बढ़ाने को कहा था।

समिट के बाद सदस्य देशों की तरफ से जारी साझा स्टेटमेंट में कहा गया- हम सामूहिक सुरक्षा को लेकर अपने फैसले पर कायम है। वॉशिंगटन संधि के आर्टिकल-5 के मुताबिक सदस्य देशों में से किसी पर भी हमले को सभी देशों पर हमला माना जाएगा।

NATO मीटिंग का एजेंडा यूरोपीय देशों के रक्षा खर्च में हिस्सेदारी को बढ़ाना ही था। ट्रम्प का मानना है कि अमेरिका NATO को बहुत पैसा देता है, लेकिन बाकी देश अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभा रहे हैं।

ट्रम्प चाहते हैं कि सभी सदस्य देश अपने GDP का 5% रक्षा पर खर्च करें। अभी NATO के खर्च में यूरोपीय देशों का कुल योगदान केवल 30% है, जो देशों की GDP का औसतन 2% है।

ट्रम्प और दूसरे देशों में आर्टिकल 5-रक्षा बजट पर मतभेद

इससे पहले मंगलवार को संगठन में मतभेद गहराते नजर आए। समिट में सबसे बड़ी चिंता NATO देशों के बीच रक्षा खर्च को लेकर आपसी मतभेद की रही। NATO महासचिव मार्क रुटे ने कहा कि संगठन यूक्रेन जैसे मुद्दों से निपट सकता है, लेकिन ट्रम्प ने NATO की सबसे अहम संधि Article 5 (एक-दूसरे की रक्षा का वादा) पर सीधा समर्थन देने से इनकार कर दिया।

NATO का एजेंडा 3.5%-1.5% के समझौते पर

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की मांगों को ध्यान में रखते हुए NATO महासचिव मार्क रूटे ने समिट का एजेंडा तय किया है। बैठक में मुख्य जोर यूरोपीय देशों द्वारा रक्षा खर्च बढ़ाने पर है, जिसे ट्रम्प लंबे समय से मांगते आ रहे हैं।

NATO में चल रहे मतभेदों के बीच महासचिव मार्क रूटे ने एक नया प्रस्ताव रखा है। इस प्रस्ताव के मुताबिक, सदस्य देशों को अपनी GDP का 3.5% सीधे सेना और हथियारों पर खर्च करना होगा और 1.5% ऐसे कामों पर जो रक्षा से जुड़े हों।

प्रस्ताव में 1.5% खर्च की परिभाषा बहुत खुली रखी गई है। इसका मतलब यह है कि हर देश इसे अपने तरीके से समझ सकता है और किसी भी खर्च को 'रक्षा खर्च' बता सकता है। कुछ देश जैसे पोलैंड, एस्टोनिया और लिथुआनिया (जिन्हें रूस से खतरा ज्यादा है) इस लक्ष्य को पाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं।

बाकी यूरोपीय देश इस खर्च को पूरा करने में अभी काफी पीछे हैं। कई देशों के लिए यह खर्च बहुत बड़ा है और वे शायद 2032 या 2035 तक भी इस लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाएंगे।

स्पेन इस प्रस्ताव के विरोध में

महासचिव मार्क रूटे ने भरोसा जताया था कि सभी 32 देश इस प्रस्ताव का समर्थन करेंगे। रूस की ओर से खतरे को देखते हुए पोलैंड, जर्मनी, नीदरलैंड्स और स्कैंडिनेवियाई देश इस प्रस्ताव को समर्थन दे भी रहे हैं।

वहीं, स्पेन ने साफ कर दिया कि वह अपनी GDP का 5% रक्षा खर्च पर नहीं लगा सकता। स्पेन ने इसका विरोध करते हुए कहा कि वो 2.1% से ज्यादा खर्च नहीं करेगा। सांचेज की सरकार पहले ही भ्रष्टाचार और राजनीतिक दबाव में है, और ऐसे में खर्च बढ़ाना और मुश्किल हो गया है। फ्रांस, इटली, कनाडा और बेल्जियम जैसे देश भी इतना खर्च करने को लेकर सहज नहीं हैं।

इस बार रूस के खिलाफ रणनीति पर चर्चा नहीं

बीते कुछ NATO समिट का केंद्र रूस रहा करता था। इस बार ट्रम्प के साथ टकराव से बचने के लिए रूस के खिलाफ रणनीति पर चर्चा को इस समिट से हटा दिया गया। यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की को तो न्योता तो भेजा गया है, लेकिन उन्हें मेन समिट में नहीं बुलाया गया। उन्हें सिर्फ एक प्रीसम्मेलन डिनर तक सीमित रखा गया।

अमेरिका NATO के पूर्वी हिस्से से कुछ सैनिक हटाने की योजना बना रहा है, जिससे यूरोपीय देशों में चिंता और बढ़ गई है। इटली के रक्षा मंत्री ने तो यहां तक कहा कि NATO जैसी संस्था अब पहले जैसी प्रासंगिक नहीं रही। हालांकि, रुटे ने भरोसा जताया कि रूस की साझा धमकी सभी देशों को एकजुट रखेगी और अमेरिका की प्रतिबद्धता अब भी बनी हुई है।

सोवियत संघ पर चुनाव में धांधली के आरोप, फिर बनी NATO

सेकेंड वर्ल्ड वॉर के बाद USSR यानी सोवियत संघ (आज के रूस) ने पोलैंड, पूर्वी जर्मनी, हंगरी और चेकोस्लोवाकिया में कम्युनिस्ट सरकार बनाने में मदद की। उस पर चुनाव में हेराफेरी करने के आरोप भी लगे।

सोवियत संघ की योजना तुर्किये और ग्रीस पर दबदबा बनाने की भी थी। इन दोनों देशों पर कंट्रोल से सोवियत संघ ब्लैक सी के जरिए होने वाले दुनिया के व्यापार को कंट्रोल करना चाहता था। USSR के इन कदमों को पश्चिमी देशों ने आक्रमण की तरह माना। इन देशों को डर था कि पूरे यूरोप में कम्युनिज्म फैल जाएगा।

इससे निपटने के लिए अमेरिका ने 1947 में ट्रूमैन डॉक्ट्रिन (ट्रूमैन सिद्धांत) की घोषणा की। इसके तहत कम्युनिज्म का विरोध कर रहे देशों को समर्थन देने की बात कही। इसके साथ ही सेकेंड वर्ल्ड वॉर में तबाह हो चुके यूरोपीय देशों की आर्थिक मदद और री-डेवलपमेंट के लिए अमेरिका ने मार्शल प्लान पेश किया। इसे आधिकारिक तौर पर यूरोपियन रिकवरी प्रोग्राम कहा गया।

USSR के खतरों का मुकाबला करने के लिए पश्चिमी यूरोप के देशों ने एक सुरक्षा समझौता किया। 1948 में ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, नीदरलैंड और लक्जमबर्ग ने ब्रसेल्स संधि पर साइन किए। हालांकि, इन देशों को सोवियत संघ का मुकाबला करने लिए अमेरिका की जरूरत थी। इसलिए उन्होंने एक बड़े सैन्य गठबंधन की मांग की।

4 अप्रैल 1949 को अमेरिका को मिलाकर 12 देशों ने नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी पर साइन किए और NATO का गठन किया। इस समझौते के आर्टिकल 5 के मुताबिक अगर किसी एक सदस्य देश पर हमला होता है, तो सभी सदस्य देश उसकी रक्षा करेंगे।NATO से अलग हुआ फ्रांस, 43 साल बाद फिर जुड़ा

1966 में फ्रांस ने NATO से खुद को आंशिक रूप से अलग कर लिया था। तत्कालीन राष्ट्रपति चार्ल्स डी गॉल का मानना था कि अमेरिका और ब्रिटेन इस संगठन में जरूरत से ज्यादा प्रभाव रखते हैं और इससे फ्रांस की संप्रभुता प्रभावित हो रही है।

गॉल चाहते थे कि फ्रांस की सैन्य नीति पर विदेशी नियंत्रण न हो। नतीजतन, फ्रांस ने NATO की संयुक्त सैन्य कमान से खुद को अलग कर लिया। उन्होंने देश में मौजूद NATO के मुख्यालय और अमेरिकी सैनिकों को हटा दिया। हालांकि, फ्रांस संगठन का राजनीतिक सदस्य बना रहा और 2009 में राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी के शासनकाल में फ्रांस फिर से NATO का सैन्य मेंबर बन गया।

तुर्किये से विवाद के बाद ग्रीस ने NATO छोड़ा

1974 में साइप्रस में एक तख्तापलट हुआ, जिसे ग्रीस का समर्थन था। इसका मकसद साइप्रस को ग्रीस के साथ मिलाना था। इससे नाराज होकर तुर्किये ने साइप्रस पर हमला कर दिया और उसके एक तिहाई इलाके पर कब्जा कर लिया।

ग्रीस और तुर्किये दोनों NATO के मेंबर थे। ग्रीस को लगा कि NATO ने तुर्किये को रोकने की कोशिश नहीं की। ग्रीस ने नाराज होकर NATO की सैन्य गतिविधियों से खुद को अलग कर लिया, हालांकि, वह भी राजनीतिक सदस्य बना रहा। छह साल बाद 1980 में अमेरिका की मध्यस्थता से ग्रीस फिर से सैन्य रूप से NATO में शामिल हो गया।

NATO देशों के बीच और कई विवाद हुए

तुर्की और अमेरिका के संबंधों में भी गंभीर तनाव पैदा हुए हैं। विशेष रूप से सीरिया संघर्ष के दौरान अमेरिका ने कुर्द लड़ाकों को समर्थन दिया, जिन्हें तुर्किये आतंकवादी संगठन मानता है। इससे दोनों देशों के बीच गहरा विवाद हुआ।

इसके अलावा तुर्किये ने रूस से S-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम भी खरीदा था। यह भी दोनों देशों के बीच बड़ा मुद्दा बन गया था। अमेरिका ने इसे NATO की सिक्योरिटी के लिए खतरा बताया और जवाब में तुर्की को F-35 फाइटर जेट कार्यक्रम से बाहर कर दिया।

पूर्वी यूरोप का देश हंगरी भी कई बार पश्चिमी देशों के लिए चिंता का विषय रहा है। प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बन पर लोकतंत्र और प्रेस की स्वतंत्रता को कमजोर करने के आरोप हैं। हंगरी की विदेश नीति अक्सर रूस के करीब दिखाई देती है। यूक्रेन से जुड़े कई प्रस्तावों को हंगरी ने वीटो भी किया है, जिससे NATO के फैसलों पर असर पड़ा है।

ट्रम्प ने नाटो छोड़ने की धमकी दी

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भी NATO को लेकर कई बार नाराजगी जता चुके हैं। ट्रम्प ने बार-बार कहा कि यूरोपीय देश अपनी सुरक्षा के लिए पर्याप्त खर्च नहीं कर रहे और सारा बोझ अमेरिका उठा रहा है। उन्होंने यहां तक कहा कि अगर यूरोपीय देश 2% GDP रक्षा पर खर्च नहीं करते तो अमेरिका संगठन से हट भी सकता है।

डोनाल्ड ट्रम्प पिछले दो दशक से अमेरिका को नाटो से बाहर निकलने की वकालत करते रहे हैं। 2016 में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में ट्रम्प ने कहा था कि यदि रूस बाल्टिक देशों (एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया) पर हमला करता है, तो वे यह देखने के बाद ही मदद करेंगे कि उन्होंने अमेरिका के लिए अपना फर्ज पूरा किया है या नहीं।

ट्रम्प का मानना है कि यूरोपीय देश अमेरिका के खर्च पर नाटो की सुविधाएं भोग रहे हैं। 2017 में राष्ट्रपति बनने के बाद तो उन्होंने नाटो से निकलने की धमकी ही दे दी थी। ट्रम्प ने 2024 में एक इंटरव्यू में साफ कह दिया था कि जो देश अपने रक्षा बजट पर 2% से कम खर्च कर रहे हैं, अगर उन पर रूस हमला करता है तो अमेरिका उनकी मदद के लिए नहीं आएगा। उल्टे वे रूस को हमला करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे।

सुरक्षा के लिए अमेरिका के भरोसे यूरोप

सेकेंड वर्ल्ड वॉर (1939-45) के बाद यूरोप आर्थिक और सैन्य रूप से कमजोर हो गया था। दूसरी तरफ जापान पर परमाणु बम गिराने के बाद अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति बनकर उभरा।

अमेरिका के पास दुनिया की सबसे शक्तिशाली सेना और परमाणु हथियार थे। उसने यूरोपीय देशों को परमाणु सुरक्षा मुहैया कराई। इससे यूरोपीय देशों को अपने परमाणु हथियार विकसित करने की जरूरत नहीं थी।

अमेरिका खासतौर पर रूस से परमाणु हमलों के खिलाफ यूरोपीय देशों को परमाणु सुरक्षा की गारंटी देता है। इससे यूरोपीय देशों का सैन्य खर्च कम होता है।

यूरोप में अमेरिका की मजबूत सैन्य मौजूदगी है। जर्मनी, पोलैंड और ब्रिटेन में 10 लाख से ज्यादा अमेरिकी सैनिक मौजूद हैं। अमेरिका ने यहां मिलिट्री बेस बनाए हैं और मिसाइल डिफेंस सिस्टम तैनात किए हैं। अमेरिका की मौजूदगी यूरोप को सुरक्षा का भरोसा देती है।

दूसरी तरफ यूरोप की सैन्य शक्ति सीमित है। ज्यादातर यूरोपीय देश अमेरिका की तुलना में रक्षा पर कम खर्च करते हैं। यूरोपीयन यूनियन (EU) के पास NATO जैसी संगठित सेना नहीं है। यहां तक कि जर्मनी और फ्रांस जैसे ताकतवर देश भी खुफिया जानकारी और तकनीक के लिए अमेरिका पर निर्भर है।

अगर अमेरिका गठबंधन छोड़ देता है तो यूरोप को अपनी योजनाओं को पूरा करने के लिए और खर्च करने की आवश्यकता होगी- शायद 3 प्रतिशत। उन्हें गोला-बारूद, परिवहन, ईंधन भरने वाले विमान, कमांड और नियंत्रण प्रणाली, उपग्रह, ड्रोन इत्यादि की कमी को पूरा करना होगा, जो वर्तमान में अमेरिका द्वारा मुहैया कराए जाते हैं।

UK और फ्रांस जैसे नाटो सदस्य-देशों के पास 500 एटमी हथियार हैं, जबकि अकेले रूस के पास 6000 हैं। अगर अमेरिका नाटो से बाहर चला गया तो गठबंधन को अपनी न्यूक्लियर-पॉलिसी को नए सिरे से आकार देना होगा।


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