देश के अनेक राज्यों में समय-समय पर छात्रों के लिए परीक्षाओं का आयोजन किया जाता है। हर वर्ष करोड़ों की संख्या में विद्यार्थी विभिन्न प्रकार की परीक्षाएं देते हैं। स्कूलों व कोलेजों में भी बहुत प्रकार की परीक्षाएं आयोजित करवाई जाती हैं। अगर किसी अच्छे स्कूल या कॉलेज में दाखिला लेना हो तो परीक्षा देनी पड़ती है। किसी प्रकार की नौकरी प्राप्त करनी हो तो परीक्षा देनी पड़ती है, किसी कोर्स का दाखिला लेना हो तो परीक्षा देनी पड़ती है। लेकिन जब परीक्षा के भवन में नकल की जाती है तो परीक्ष प्रणाली पर एक प्रश्नचिन्ह लग जाता है। परीक्षा के दौरान नकल देश में कोई नई बात नहीं है और इसे समाज में बुरी नज़र से देखा जाता है। इसके बावजूद नकल का प्रचलन दशकों से देश के ज्यादातर हिस्सों में फल-फूल रहा है। इससे हमारी परीक्षा प्रणाली की विश्वसनीयता भी कम हो जाती है। आइए, इससे जुड़े कुछ चुनिंदा पहलुओं पर विचार करें। सबसे पहले कुछेक अभिभावक भी बच्चों को नकल करवाने के लिए चारों तरफ फिरते रहते हैं। उनके लिए उनके बच्चे का परीक्षा में हर कीमत पर पास होना इज्ज़त का सवाल बन जाता है। इसके लिए पैसे लगें, सिफारिश लगे या फिर कोई भी हथकंडा अपनाना पड़े, सब जायज होता है। आसपास का इतना दबाव होता है कि कहीं कम मार्क्स आ गए या फिर मुन्ना या मुन्नी फेल हो गई तो इज्ज़त ख़राब हो जाएगी। हमारे छात्र भी अभिभावकों के इस दबाव के कारण नकल की तरफ अग्रसर हो जाते हैं और अपनी नैसर्गिक प्रतिभा का विनाश कर बैठते हैं। पैसे बनाने के लिए खुले कुछ शिक्षा संस्थान तो नकल की गारंटी पर ही छात्रों का दाखिला करवाते हैं। कुछ बरस पहले पंजाब के बॉर्डर जिले में एक उच्च शिक्षा अधिकारी को स्कूल में नकल रोकने पर कुछ घंटे के लिए बंधक बना लिया गया था और बड़े लेवल पर हस्तक्षेप होने पर स्थिति काबू में हुई। ऐसी घटनाएं सुन कर कई बार तो ऐसा महसूस होता है कि नकल से जुड़ा सब कुछ एक बड़ा नेक्सस और चक्रव्यूह है जिसे भेदने के लिए सरीखे नेतृत्व की हम सबको जरूरत है। नकल की प्रवृत्ति एक लत है। हमारे कुछ शिक्षा संस्थान भी देश में शिक्षा की गुणवत्ता को निचले स्तर पर अपने फायदों के लिए धकेल रहे हैं। उच्च शिक्षा में भी कभी-कभी ऐसी स्थितियां देखने को मिल जाती हैं। हाल ही में मुजफ्फरपुर स्थित एक यूनिवर्सिटी में परीक्षा में नकल करने से रोकने पर छात्रों ने जमकर उत्पात मचाया। शिक्षकों के साथ मारपीट की गई। एग्जाम हॉल में एक छात्र को नकल करने के आरोप में शिक्षकों ने पकड़ा। उसे एक्सपेल्ड कर बाहर निकाल दिया। उक्त छात्र ने बाहर निकलकर अपने साथियों को कॉल कर बुला लिया।
दर्जनों की संख्या में पहुंचे छात्र अचानक से परीक्षा हॉल में प्रवेश कर गए। फिर शिक्षक के साथ मारपीट करने लगे। आंसर शीट फाड़ने का प्रयास करते हुए जमकर उत्पात मचाने लगे। ऐसी घटनाएं बताती हैं कि हम छात्रों को शिक्षित करने के साथ नकल के दुष्परिणामों के बारें में समझा नहीं पाए हैं। नकल करने की जिद पर छात्रों का इस तरह का बर्ताव समाज के लिए चिंता जताने वाला है। शिक्षकों के लिए ऐसे माहौल में परीक्षा ड्यूटी करना आसान नहीं होता। परीक्षा रेगुलेटरी अथॉरिटी के लिए इस नैतिक प्रहार से निपटना एक बड़ी चुनौती बन जाता है। देखने में तो यह भी आता है कि नकल करना और करवाना अब पैसा कमाने का माध्यम बन गया है। अगर नकल करवानी है तो माता-पिता के पास धन होना जरूरी हो गया है। कुछ विद्यार्थी दूसरों के लिए आज भी नकल करवाने और चिट बनाने का काम करते रहते हैं। बहुत से विद्यार्थी तो ब्लू-टूथ और एसएमएस के द्वारा भी नकल करते रहते हैं। बच्चों के मूल्यांकन में भी बहुत गड़बड़ी होने लगी है। सच यह है कि कोई भी परीक्षा प्रणाली विद्यार्थी के चरित्र के गुणों का मूल्यांकन नहीं करती है। हमारी परीक्षा प्रणाली अत्यंत दोषपूर्ण है। जो परीक्षा प्रणाली केवल कंठस्थ करने पर जोर देती है, विश्लेषण और अभिव्यक्ति पर कम ध्यान देती है, वो विद्यार्थियों की योग्यता का मूल्यांकन नहीं कर सकती। हमें सतत चलने वाली परीक्षा प्रणाली को स्कूलों और कॉलेजों में विकसित करने की जरूरत है। विद्यार्थी के ज्ञान, गुण और क्षमता का भी मूल्यांकन किया जाना चाहिए। अकादमिक परीक्षाओं में नकल करने और करवाने वालों को सोचना चाहिए कि ऐसा कब तक चलेगा।
आगे चलकर जब किसी छात्र को कोई व्यावसायिक कार्य या फिर नौकरी पाने के लिए स्किल का प्रदर्शन करना होगा, तब वे क्या करेंगे? इसी साल फरवरी में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने पेपर लीक होने के मामले में सख्त टिप्पणी करते हुए कहा था कि ऐसी घटनाएं देश की शिक्षा प्रणाली को बर्बाद कर रही हैं। भारत में स्कूल-कॉलेज की परीक्षाओं में ही नहीं, सरकारी प्रतियोगी परीक्षाओं में भी नकल बहुत ज्यादा बढ़ रही है और अधिकारियों को नकलार्थियों के आधुनिक तरीकों से निपटने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ रही है। राजस्थान में हाल में हुई एक परीक्षा में नकल कराने वाले गिरोह को पकड़ा गया। पूछताछ में आरोपियों ने नकल के ऐसे तरीकों का खुलासा किया जिन्हें सुनकर सब हैरान रह गए थे। परीक्षा में चप्पल और सैनिटरी नैपकिन में डिवाइस छिपाकर नकल कराने के तरीके के साथ ही अभ्यर्थियों का एग्जाम से पहले एक ट्रेनिंग सेशन भी कराया गया था। नकल करने के तरीकों में किसी अन्य के स्थान पर प्रॉक्सी कैंडिडेट के जरिए परीक्षा देना भी शामिल है जिसे कुछ लोगों ने तो अपना पेशा ही बना लिया है। इसके अलावा पेपर चुराना और उन्हें बेचना भी एक पेशेवर अपराध बन चुका है। यह शिक्षा बेचने का गंदा धंधा है। जरूरत इस बात की है कि हम सब नकल के दुष्परिणामों के बारे में बड़े स्तर पर जागरूकता मुहिम चलाएं, ठीक जैसे वातावरण और पर्यावरण को बचाने के लिए कर रहे हैं। छात्रों का भविष्य धूमिल करने के लिए स्लो प्वाइजन का काम कर रही परीक्षाओं में नकल की प्रवृत्ति हमरी शिक्षा से जुड़ी गुणवता को धीरे-धीरे खत्म कर रही है। इसके लिए जन जागरण की भी आवश्यकता है।
हमारे छात्र इसके विरोध में खुद आगे आएं तो कमाल हो जाए। प्रण इस बात का भी लेना होगा कि नकल की बीमारी को किसी भी कीमत पर न तो सपोर्ट किया जाना चाहिए और न ही प्रमोट किया जाना चाहिए। नकल करने की प्रवृत्ति और नकल कराने की मनोवृत्ति का मूल कहां से पैदा होता है, इसे समझने की जरूरत है। नंबरों की होड़ और फेल होने का डर इसके दो बड़े कारण हैं। फेल होने के बाद निराशा का शिकार होने वाले और सार्वजनिक रूप से अपमानित होने वाले छात्रों के लिए नकल एक टॉनिक की तरह है। सभी नकल करने वाले एक जैसे होते हैं। नकल करने वालों में प्रतिभा नहीं होती। नकल करने वाले जीवन में कुछ कर नहीं पाते। जिस समाज में फेल होना अपराध होता है, वहां नकल करना सामाजिक रूप से वैधता पा जाता है। दोनों बातें एक सिक्के के दो पहलू सरीखी हैं। नकल करने की प्रवृत्ति से छात्रों का भविष्य बिगड़ रहा है। इसके लिए शिक्षा जगत से जुड़े सभी लोगों को शिक्षा के साथ जोड़ने का सकारात्मक रास्ता खोजना चाहिए, ताकि नकल कराने के लिए दीवारों पर चढ़ने की जरूरत न पड़े। हमें ऐसा कोई रास्ता निकालना चाहिए कि हमारे छात्र परीक्षा के डर से आज़ाद हों। अभिभावक भी अपने पुराने अनुभवों को बच्चों पर लादने की कोशिश से बाज आएं। अच्छा होगा कि नंबरों की होड़ पर विराम लगे। प्रतिभा और नंबर को तराजू के दोनों तरफ रखकर तौलने की प्रवृत्ति को हतोत्साहित किया जाए। इसमें थोड़ा वक्त लग सकता है, लेकिन प्रवेश परीक्षाओं को आधार बनाकर या फिर नंबरों के महत्त्व को कम करके रास्ता निकाला जा सकता है।
-डा. वरिंदर भाटिया-