मोबाइल वरदान हैं या अभिशाप!

आवश्यकता ही आविष्कार की जननी हैं और कभी कभी परिस्थितियों के कारण भी वह पराधीन हो जाता हैं। जब मोबाइल का चलन शुरू हुआ लगभग २५ वर्ष पुर्व तो यह सामाजिक क्रांति का प्रतीक था ,दुनिया मुठ्ठी में हो गयी थी.पहले धनियों का खिलौना रहा फिर धीरे धीरे जान सामान्य तक इसने पहुँच बनाई और आज इसके बिना जीवन शून्य होता जा रहा हैं। आज औसतन या बहुतायत में इसकी उपलब्धता सामान्य हो गयी।


विगत २ वर्षों में कोरोना काल में इसकी उपयोगिता बहुत बढ़ी कारण आवागमन और मिलना जुलना कम होने से यह बहुत माकूल माध्यम रहा। पर इस वर्ष पढ़ाई का माध्यम ऑनलाइन होने से लेपटॉप ,मोबाइल ,आदि का चलन अनिवार्य हुआ। इससे हम आभासी दुनिया से जुड़े और बच्चों की पढाई की औपचारिकता शुरू हुई। अब इसमें अपर के. जी। शिशुओं को भी मोबाइल लेपटॉप टेबलेट आदि से पढ़ाई कराना शुरू किया यानी शिशुओं में मोबाइल का बीजारोपण शुरू किया उसके बाद वे उसमे उलझे ,और यदि आपने उनसे जबरदस्ती कीया छुड़ाने का प्रयास किया तो उनका मचल जाना स्वाभाविक हैं कारण कोरोना काल में बाह्य संपर्क कम या टूटने से एकाकीपन का क्या इलाज़। इस द्वन्द में मात पिता उन्हें मोबाइल या टी वी देखने को बाध्य होते हैं और उनका अधिकतम समय उसी में बीतता हैं।


इसके बाद उससे आगे की पढ़ाई भी अधिक समय यानी ५ -६ घंटे होने के बाद उससे फिर होम वर्क ,नोट्स बनाने में भी उसी का उपयोग होने से वे फिर अन्य सामग्री देखने लगते हैं और यह एक मीठा जहर उनको मिलना शुरू हो जाता हैं। या न केवल बच्चों की कॉलेज की पढाई ,कोचिंग भी मोबाइल से। माँ बाप का काम भी वर्क फ्रॉम होम के कारण 12-12 घंटे लेपटॉप पर बैठकर कार्य सम्पादित करते हैं। घर में सब सदस्य होते हुए भी एक दूसरे से अनजान हैं।


आजकल आपने जिसकी भी स्वतंत्रता में बाधा पहुंचाई वह आपका दुश्मन। सब को सब प्रकार की छूट चाहिए। आज आप एक साल के शिशु से मोबाइल या टी वी रिमोट नहीं ले सकते। वह मचल जाता हैं। इससे ज्ञानार्जन कितना हो रहा हैं यह किसी को नहीं मालूम पर आज सब इसके नशे के आदी के साथ व्यस्त होते जा रहे हैं।


हर वस्तु का सेवन या उपयोग सीमित हो तो बहुत सीमा तक मान्य हैं पर यदि वह असीमित हो जाए तो वह रोग बनने लगता हैं। आज हम क्या सभी जिनके हाथ में मोबाइल ,लेपटॉप टेबलेट हैं वे व्यसनी हो चुके और अब उनको रोक पाना खतरनाक है.एक दादी ने अपनी नातिन को मोबाइल उपयोग करने पर रोक या कम देखने पर जोर दिया तब बारह वर्ष की बच्ची ने अपने घर में फांसी लगा ली और वह मर गयी.


क्या सीमित देखने के लिए कहना अपराध हैं या न कहना उचित हैं। इसके लिए हमारी व्यवस्था अधिक गुनहगार हैं। स्कूल कॉलेज की शिक्षा ऑनलाइन कराना कितना उचित हैं ?बच्चे एक कोरी स्लेट होते हैं जैसा बीजारोपण करो वैसे फसल होती हैं। इस रोग से सभी वर्ग और सभी उम्र के लोग प्रभावित हो चुके हैं। भविष्य अब अंधकारमय दिख रहा हैं। इस पर कैसे अंकुश लगाया जाय ? कोई मार्ग नहीं दिख रहा हैं। 


-विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन-