कैसे होता है आत्मा का परमात्मा से मिलन

यह सृष्टि परमात्मा पर ही टिकी हुई है। आज जो इस संसार का संतुलन बना हुआ है। वह ईश्वर के द्वारा ही संभव है। उसी ने इस सम्पूर्ण जगत की रचना की है। उसके अतिरिक्त और सब मिथ्या है, भ्रम है, स्वप्न है। हम सब इस संसार सागर में किसी न किसी कार्य को लेकर इतने व्यस्त रहते है की भगवान को भूल ही जाते है। और यह नहीं जानते की इस जगत से मुक्ति का माध्यम तो सिर्फ भगवान का ध्यान और चिंतन है। सांसारिक क्रिया कलाप, धन दौलत, जन ये सभी नाशवान है। आज नहीं तो कल हमारा साथ छोड़ देंगे।


इस जगत में रहने वाले प्रत्येक मानव को जीवन यापन करने के लिए क्रियाकलाप तो जरूरी है पर यह नहीं की वह भगवान को भूल जाए। भगवान की मानव को इस संसार से छुटकारा दिलाता है, ईश्वर उपासना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म है। नदियां जब तक समुद्र में नहीं मिल जातीं अस्थिर और बेचैन रहती है। मनुष्य की असीमता भी अपने आपको मनुष्य मान लेने की भावना से ढकी हुई है। उपासना विकास की प्रक्रिया है। संकुचित को सीमा रहित करना, स्वार्थ को छोड़कर परमार्थ की ओर अग्रसर होना, मैं और मेरा छुड़ाकर हम और हमारे की आदत डालना ही मनुष्य के आत्म-तत्व की ओर विकास की परम्परा है। 


यह तभी सम्भव है। जब सर्वशक्तिमान परमात्मा को स्वीकार कर लें, उसकी शरणागति की प्राप्ति हो जाय। मनुष्य रहते हुए मानवता की सीमा को भेदकर उसे देवस्वरूप में विकसित कर देना ईश्वर की शक्ति का कार्य है। उपासना का अर्थ परमात्मा से उस शक्ति को प्राप्त करना ही है। 


जान-बूझकर या अकारण परमात्मा कभी किसी को दण्ड नहीं देता। प्रकृति की स्वच्छन्द प्रगति प्रवृत्ति में ही सबका हित नियन्त्रित है। जो इस प्राकृतिक नियम से टकराता है वह बार-बार दुःख भोगता है। और तब तक चैन नहीं पाता जब तक वापस लौटकर फिर उस सही मार्ग पर नहीं चलने लगता। भगवान् भक्त की भावनाओं का फल तो देते हैं किन्तु उनका विधान सभी संसार के लिये एक जैसा ही है। भावनाशील व्यक्ति भी जब तक अपने पाप की सीमायें नहीं पार कर लेता तब तक अटूट विश्वास, दृढ़ निश्चय रखते हुए भी उन्हें प्राप्त नहीं कर पाता।