लंका दहन के समय एक घर छोड़ दिया था हनुमानजी ने

मेघनाथ ने श्रीहनुमानजी को रावण के सामने लाकर खड़ा कर दिया। हनुमानजी ने देखा कि राक्षसों का राजा रावण बहुत ही ऊंचे सोने के सिंहासन पर बैठा हुआ है। उसके दस मुंह और बीस भुजाएं हैं। उसका रंग एकदम काला है। उसके आसपास बहुत से बलवान योद्धा और मंत्री आदि बैठे हुए हैं। लेकिन रावण के इस प्रताप और वैभव का हनुमानजी पर कोई असर नहीं पड़ा। वह वैसे ही निडर खड़े रहे जैसे सांपों के बीच में गरुड़ खड़े रहते हैं।

 

हनुमानजी को इस प्रकार अपने सामने अत्यन्त निर्भय और निडर खड़े देखकर रावण ने पूछा- बन्दर तू कौन है? किसके बल के सहारे वाटिका के पेड़ों को तुमने नष्ट किया है? राक्षसों को क्यों मारा है? क्या तुझे अपने प्राणों का डर नहीं है? मैं तुम्हें निडर और उद्दण्ड देख रहा हूं। हनुमानजी ने कहा- जो इस संपूर्ण विश्व के, इस संपूर्ण ब्रह्मांड के स्वामी हैं, मैं उन्हीं भगवान श्रीरामचंद्रजी का दूत हूं। तुम चोरी से उनकी पत्नी का हरण कर लाये हो। उन्हें वापस कर दो। इसी में तुम्हारा और तुम्हारे परिवार का कल्याण है। यदि तुम यह जानना चाहते हो कि मैंने अशोवाटिका के फल क्यों खाये, पेड़ आदि क्यों तोड़े, राक्षसों को क्यों मारा तो मेरी बात सुनो। मुझे बहुत जोर की भूख लगी थी इसलिए वाटिका के फल खा लिये। बंदर स्वभाव के कारण कुछ पेड़ टूट गये। अपनी देह सबको प्यारी होती है इसलिए जिन लोगों ने मुझे मारा, मैंने भी उन्हें मारा। इसमें मेरा क्या दोष है? लेकिन इसके बाद भी तुम्हारे पुत्र ने मुझे बांध रखा है।

 

रावण को बहुत ही क्रोध चढ़ आया। उसने राक्षसों को हनुमानजी को मार डालने का आदेश दिया। राक्षस उन्हें मारने दौड़ पड़े। लेकिन तब तक विभीषण ने वहां पहुंच कर रावण को समझाया कि यह तो दूत है। इसका काम अपने स्वामी को संदेश पहुंचाना है। इसका वध करना उचित नहीं होगा। इसे कोई अन्य दंड देना ही ठीक होगा। विभीषण की यह सलाह रावण को पसंद आ गयी। उसने कहा ठीक है बंदरों को अपनी पूंछ से बड़ा प्यार होता है। इसकी पूंछ में कपड़े लपेटकर, तेल डालकर उसमें आग लगा दो। जब यह बिना पूंछ का होकर अपने स्वामी के पास जायेगा तब फिर उसे भी साथ लेकर लौटेगा। यह कहकर वह बड़े जोर से हंसा।

 

रावण का आदेश पाकर राक्षस हनुमानजी की पूंछ में तेल भिगो भिगोकर कपड़े लपेटने लगे। अब तो हनुमानजी ने बड़ा ही मजेदार खेल किया। वह धीरे धीरे अपनी पूंछ को बढ़ाने लगे। ऐसी नौबत आ गयी कि पूरी लंका में तेल, कपड़े और घी बचे ही नहीं। अब राक्षसों ने तुरंत उनकी पूंछ में आग लगा दी। पूंछ में आग लगते ही हनुमानजी तुरंत उछलकर एक ऊंची अटारी पर जा पहुंचे और वहां से चारों ओर कूद कूदकर वह लंका को जलाने लगे। देखते ही देखते पूरी नगरी आग की विकराल लपटों में घिर गयी। सभी राक्षस और राक्षसियां जोर जोर से चिल्लाने लगे। वे सब रावण को कोसने लगे। रावण को भी आग बुझाने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। हनुमानजी की सहायता करने के लिए पवन देवता भी जोर जोर से बहने लगे। थोड़ी ही देर में पूरी लंका जलकर नष्ट हो गयी। हनुमानजी ने केवल विभीषण का घर छोड़ दिया और उसे जलाया नहीं।