ये चुनाव पार्टी नहीं, प्रत्याशियों का होगा

 शुक्रवार (20 अक्टूबर) को कांग्रेस तो शनिवार (21 अक्टूबर) को बीजेपी के कार्यकर्ताओं की नाराजगी के ढेर सारे वीडियो के बीच अंतिम सत्य यही है कि दोनों पार्टियों ने अपने-अपने महारथी मध्य प्रदेश विधानसभा 2023 के चुनावी समर में उतारकर चुनाव लड़ने के आदेश दे दिए हैं. दो पार्टी की सत्ता वाले मध्य प्रदेश की खूबी यही है कि बीजेपी कांग्रेस के बीच कुछ चुनाव छोड़ दिए जाएंं तो अधिकतर चुनावों में बड़ा करीबी मुकाबला होता है. इस बार भी यही लग रहा है.

बीजेपी और कांग्रेस की सूचियों को देखा जाए तो हैदर अली आतिश का यही शेर याद आता है- 'बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जो चीरा तो इक कतरा-ए-खूं न निकला.' चुनाव के पहले दोनों पार्टियों ने बड़े-बड़े दावे किए थे टिकट बांटने के दावों के. हर विधानसभा का बड़ा सर्वे होगा, एक खास क्राइटेरिया होगा, जिसमें उम्र का खयाल रखा जाएगा, प्रदेश में युवा वोटर बड़ी संख्या में हैं, उम्मीदवारों में युवाओं को जगह दी जाएगी, पार्टी छोड़कर गए लोगों को जगह नहीं दी जाएगी, हार के अंतर का ख्याल रखकर ही टिकट बांटे जाएंगे, युवाओं, ओबीसी और महिलाओं का खास ध्यान होगा, मगर दोनों पार्टियों की सूचियों में किसी भी खास पैमाने का ध्यान नहीं रखकर सिर्फ जिताऊ उम्मीदवार पर ही फोकस किया है, भले ही वो कितना बुजुर्ग और कितनी ही बार पार्टी की रीति-नीति छोड़कर भागा हो.

पहले चर्चा बीजेपी की शनिवार की शाम को आई उस सूची की जिसका लंबे समय से इंतजार हो रहा था. बीजेपी ने शुरुआत की दो सूचियों में जिस प्रकार चौंकाया था उससे लग रहा था कि इस बार पार्टी इस चुनाव को अलग ही स्तर पर ले जा रही है, टिकट वितरण से लेकर प्रचार तक में. पहले जल्दी से हारी सीटों पर उम्मीदवार उतारे फिर सात सांसदों सहित तीन केंद्रीय मंत्रियों को मैदान में उतारा और संदेश दिया कि हर सीट खास है, मगर तीसरी सूची तक मंत्रियों और मुख्यमंत्री का नाम नहीं आने पर लगा कि यहां भी गुजरात तो नहीं दोहराया जाएगा. इस आशंका में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने सभाओं में तीखा राग छेड़ा- चुनाव लडूं या नहीं, चला जाऊंगा तो बहुत याद आऊंगा, मैं कैसी सरकार चला रहा हूं वगैरह... इसका असर हुआ तीसरी सूची में, जो 57 नाम आए तो लगा कि मुख्यमंत्री की मर्जी के आगे आलाकमान ने समर्पण कर दिया और तकरीबन सारे विधायक और मंत्रियों को टिकट दे दिए गए.

शनिवार को आई सूची में फिर कुछ नयापन की उम्मीद थी मगर यहां भी ऐसा नहीं हुआ. बानवे प्रत्याशियों की तीसरी सूची में घर बैठ गए बुजुर्ग नेताओं के साथ कई बार पार्टी छोड़कर बाहर गए फिर लौटे लोगों पर पार्टी ने जी भरकर भरोसा बरसाया. नरेंद्र कुशवाहा और राकेश शुक्ला दो बार पार्टी से बाहर जा चुके हैं. जयंत मलैया, नागेंद्र सिंह, बालकिशन पाटीदार, माया सिंह, नारायण कुशवाहा, महेंद्र हार्डिया, दिलीप परिहार सत्तर-बहत्तर से पार के उम्रदराज नेता हैं. एक जानकार का कहना है कि शिवराज भाजपा महाराज भाजपा नहीं, ये डरी भाजपा की सूची है. जीतने के नाम पर सारे तय मानदंड को परे रख दिया गया.

कांग्रेस की शुक्रवार को आई सूची में कमलनाथ के सर्वे को ही सर्वेसर्वा मानने वालों की हवा निकाल दी गई. कांग्रेस की अठासी की सूची देखकर लगा कि कई सीटों पर पार्टी के पास चुनाव लड़ाने के लिए लोग ही नहीं है. जो हैं वो या तो इतने नए हैं कि उनकी कुछ पहचान ही इलाके मे नहीं है और पुराने हैं तो इतने पुराने हैं कि बीस साल पहले दिग्विजय मंत्रिमंडल के साथी रहे है. सुभाष सोजतिया, नरेंद्र नाहटा, राकेश चौधरी, राजकुमार पटेल और हुकुम सिंह कराडा दिग्गी राजा के साथी मंत्री रहे हैं. ये सब फिर चुनाव लड़ रहे हैं. कोई नयापन नहीं.

खैर अब इस चुनाव में प्रत्याशी ही महत्वपूर्ण होने जा रहे हैं. बीजेपी और कांग्रेस के नाम पर उम्मीदवारों को वोट कम मिलेंगे, ये इलाकों में घूमकर लौटने वाले बता रहे हैं. बीजेपी कांग्रेस के मुख्यमंत्री चेहरों पर किसी को कोई आकर्षण नहीं बचा है. फ्री की रेवड़ियां बांटने और आकाशी वायदे करने में दोनों पार्टियां एक दूसरे को पछाड़ रही हैं. इसलिए टिकट वितरण, उसके बाद टिकट विरोध और फिर प्रचार का दौर अब शुरू होने को है, मगर इतना साफ है कि इस बार का चुनाव पार्टी नहीं, प्रत्याशी के नाम पर होगा, इसलिए आलाकमान के दम पर वोट पाने का मंसूबा रखने वाले इस बार निराश होंगे. जीतेगा वही जिसे स्थानीय जनता चाहेगी. इसलिए बस अब तैयार हो जाइए मध्य प्रदेश के महासमर के लिए.